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भय, द्वेप एव खेद जो आत्मा के तात्त्विक स्वरूप के अज्ञान से उत्पन्न होते थे, उस आत्मा के शुद्ध एव तात्त्विक स्वरूप __ का सम्यक् ज्ञान होने के साथ दूर हो जाते हैं। नमस्कार मन्त्र
में स्थित पाँची परमेष्ठि शुद्ध स्वरूप को प्राप्त होने से उनको किया जाने वाला नमस्कार जब चित्त में परिणमित होता है तब आत्मा में सबके साथ आत्मीयता से तुल्यता का ज्ञान तथा स्वरूप से शुद्धता का ज्ञान आविर्भूत होता है एव वह आविर्भाव होने के साथ ही भय, द्वेष एक खेद चले जाते है।
नमस्कार मन्त्र वैराग्य एव अभ्यास स्वरूप भी है । वैराग्य निन्ति ज्ञान का फल है एव अभ्यास चित्त की प्रशान्तवाहिता का नाम है। चित्त जब प्रशमभाव को प्राप्त करता है तब वह विश्वमंत्रीमय बनता है, जव चित्त में वैरविरोध का एक अश भी नहीं रहता तब अभ्यास का फल गिना जाता है। वैराग्य , जान रूप है एव अभ्यास प्रयत्न रूप है । ज्ञान की पराकाष्ठा ही वैराग्य एव समता की पराकाप्ठा ही अभ्यास कहलाता है । ज्ञान एव सम्ता जब पराकाष्ठा तक पहुंचती है तव मोक्ष सुलभ वनता है।
नमस्कार मन्त्र दोष की प्रतिपक्ष भावना
श्री नमस्कार मन्त्र दोष की प्रतिपक्ष भावना स्वरूप भी है। योगशास्त्र में कहा गया है कि
यो च स्याद वाधको दोयम्तस्य तस्य प्रतिक्रियाम् । चिन्तयेद् दोपमुक्तेपु, प्रमोद यनिपु जन् ।।
योगशास्त्र, प्र. ३ श्लोक ।। ३६ स्वोपन टीकाकार महषि इस प्रलोक के विवरण में कहते है कि-- मुरं हि दोपमुक्त-मुनिदर्शनेन प्रमोदादात्मन्यपि दोपमोक्षणम् ।