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________________ नही, धृति से होते है पर आकुल व्याकुलता से नहीं, धारणा से होते है पर शून्यचित्त से नही तथा अनुप्रेक्षापूर्वक होते है पर मात्र क्रिया रूप मे नही, तभी वे भाव रूप बनते है एव बोधि तथा निरुपसर्ग अवस्था का कारण बनते है । नवकार के प्रथमपद का अर्थ नवकार के प्रथम पद का अर्थ यह है कि 'अरिहं' 'अरह' एव 'अरुह' को नमस्कार-त्राणस्वरूप है। 'अरिह' प्रभू को धर्मकाय अवस्था को कहते है । 'अरह' प्रभू की कर्मकाय अवस्था को कहते है । 'अरुह' प्रभु की तत्त्वकाय अवस्था को कहते है । धर्मकाय अवस्था जन्म को जिताने वाली होती है। कर्मकाय अवस्था जीवन को जिताने वाली होती है। तत्त्वकाय अवस्था मृत्यु को जिताने वाली होती है। - जन्म, जीवन एव मरण इन तीनो अवस्थाओ पर जिन्होने विजय प्राप्त की है वे अरिहं है। संस्कृत अईत् शब्द के प्राकृत' मे तीन रूप हैं । ये ही क्रमश. अरिह, अरह एवं अरुह है। ___ 'अहं' शब्दब्रह्म है अत परब्रह्म का वाचक है। परब्रह्म चैतन्य परसामान्य से एक रूप है । उसे नमस्कार का अर्थ है तद्र प परिणमन । यह परिणमन निर्विकल्प-चिन्मात्र-समाधि रूप है। अतः उससे भव का नाश होता है । 'अरिह', 'अरह' अथवा 'अरुहं'- ये शब्द शुद्ध प्रात्मस्वरूप के वोधक होने से श्रुतसामायिक की प्राप्ति करवाते हैं। श्रुतसामायिक सम्यक्त्व सामायिक की प्राप्ति का कारण है। ___ भाव से किया गया श्री अरिहतो का नमस्कार सम्यक्त्व सामायिक रूप है क्योकि उसमे आत्मतत्त्व की अभेदभाव से प्रतीति है । इस प्रतीति का फल सर्वविरतिसामायिक, अप्रमत
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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