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________________ द्वैत एवं प्रति नमस्कार परमेष्ठि का अथ है परम उत्कृष्ट स्वरूप मे अवस्थित भगवन्त । आत्मा का उत्कृष्ट स्वरूप समभाव में है। उसमे जो स्थित है, अवस्थित है वे परमेष्ठि कहे जाते हैं। __ श्री अरिहत एव सिद्ध केवल पूज्य है, अत देवतत्त्व है। आचार्य, उपाध्याय एव साधु पूज्य भी है एव पूजक भी अत गुरुतत्त्व है। धर्म की आत्मा देव एव गुरुतत्त्व हैं। इन दोनो तत्त्वो की भक्ति धर्म का प्राण है । इस प्राण की रक्षा करने वाले मदिर, मूर्ति एव पूजा आदि धर्म के देह एव वस्त्रालकार है । वडो के सामने अपनी लघुता एव उनकी गुरुता प्रकट हो वैसा वर्तन करना चाहिए। उसी का नाम नमस्कार है । उसके दो भेद है एक द्वैत एव दूसरा अद्वत । जब तक विशेप प्रकार की स्थिरता प्राप्त नहीं हुई हो तब तक उपास्य एव उपासक रूप का द्वैत भाव होता है। यही द्वात नमस्कार है। ___राग द्वेष के विकल्पो का नाश हो जाने से चित्त की इतनी अधिक स्थिरता हो जाती है कि उसमे से त भाव ही चला जाता है। यह अद्वात नमस्कार है। उस स्थिति मे स्वय की आत्मा ही उपास्य बनती है एव अपने शुद्धस्वरूप का ही ध्यान हुआ करता है । हतनमस्कार अद्वैतनमस्कार का साधन मात्र है। सिद्धो के परोक्षस्वरूप को बताने वाले श्री अरिहत है। अत व्यवहारदृष्टि से वे प्रथम हैं। इस प्रकार यह सिद्ध होता है कि पचपरमेष्ठिनो का क्रम पूर्वानुपूर्वी है। जपक्रिया दृष्टफला है । जाप की क्रिया दृष्टफला--प्रत्यक्ष फल प्रदान करने वाली है। मत्रशक्ति कभी भी गलत सावित नहीं होती। जिस प्रकार
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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