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________________ मत्र का प्रधान कार्य मनुष्य की रक्षा करना है। आधि, व्याधि एव उपाधि---इन तीनो से मत्र रक्षण करता है । मनुष्य के मन की निरर्थक चिन्तामो को मत्र-साधना छुडाती है एव मनुष्य-शरीर को चिन्ता एव विषाद से उत्पन्न होते अनेक शारीरिक रोगो से बचाती है। यही मत्र-साधना प्रारब्ध-योग से आने वाले वाह्य सकट तथा अनिवार्य प्रत्यवाय-विघ्नादि के समय मन को शान्न रख उनसे दूर होने के मार्गों को ढूढ निकालने में सहायक होती है। . FIR मत्र-साधना के परिणामस्वरूप प्रात्म-साक्षात्कार "होंने पर उनके सम्पर्क में आने वाली आत्मायो को भी वह सत्य मार्ग-दर्शन करवाकर अनक आपत्तियों से उनका उद्धार करवा सकती है । इस प्रकार मत्र-साधनों मनुष्य के सर्वलक्षी प्राध्यात्मिकविकास मे अत्यन्त संहायक बनने वाली होन से अत्यन्त आदरपूर्वक करणीय है। 7 श्री नवकार मत्र सभी मत्रो मे शिरोमणि होता है। उसकी साधना मे रात दिन लीन मनुष्यो को वह विवेक, वैराग्य एव अन्तर्मुखिता देने वाला तथा प्राधि, व्याधि तथा उपाधि से उवारने वाला होता है । इतना ही नही मन की पर अवस्था को भी प्रदान करने वाला होता है जिसे तुरीयावस्था कहते हैं । तुरीयावस्था को अमनस्कता, उन्मनीभाव एव निर्विकल्प चिन्मात्र अवस्था भी कहते हैं। उस अवस्था मे अत्यन्त दुर्लभ आत्मज्ञान होता है जो सकल क्लेश एव कर्म से जीव को हमेशा के लिए मुक्ति दिला देता है। - सन को जिताने वाला 'नमो मंत्र 'नमो' मंत्र द्वारा ही मन को आत्माधीन बनाने की प्रक्रिया साधित होती है। नमो मत्र का न' अक्षर सूर्य वाचक है ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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