SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १४ को निश्चय रूप से जान सकता है । कहा है कि जेह ध्यान अरिहन्त को, सो ही आतम ध्यान, फेर कुछ इमे नहिं, एहिज परम विधान, एम विचार हियड़े धरी, समकित दृष्टि जेह, - सावधान निज रूप मे, मगन रहे नित्य तेह, 1 मरणसमाधिविचारगाथा २२५-२२६. " द्रव्यतया परमात्मा एव जीवात्मा" "द्वात्रिंशद्-द्वात्रिंशिका टीका" द्रव्य से स्वयं परमात्मा ही जीवात्मा है । शुद्ध द्रव्य, गुरग एव पर्याय से श्री अरिहत का ज्ञान होने से तदनुसार उनका ध्यान होता है । वह ध्यान समापत्तिजनक ध्यान बनकर मोह का नाश करता है । समापत्ति का अर्थ है ध्यानजनित स्पर्शना अर्थात् ध्यान काल मे ध्याता को होती हुई ध्येय की स्पर्शना । वह दो प्रकार से होती है - एक ससर्गारोप से एव दूसरी भेदारोप से । शुद्धात्मा के ध्यान से अन्तरात्मा के प्रति परमात्मा के गुरण का ससर्गारोप होता है । यह प्रथम समापत्ति है । इसके पश्चात् अन्तरात्मा मे परमात्मा का ग्रभेद - आरोप होता है । यह दूसरी समापत्ति है । उसका फल बहुत विशुद्ध समाधि है । श्री नमस्कार मंत्र दोनो प्रकार की समाधि का कारण वनकर साधक को विशुद्ध समाधि देने वाला है । अत उसका वार-बार स्मरण करना चाहिए, ध्यान करना चाहिए एवं उसका पुन. पुन. व्यान करना चाहिए ।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy