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________________ सच्चा नमस्कार शरणगमन नगद नारायण है । दुष्कृतगर्दा एव सुकृतानुमोदना दोनो ही शरण गमन रूप एक ही सिक्के की दो वाजुएं हैं। दुष्कृत से जव भय होता है तभी दोष रहित की शरण स्वीकार करने की मनोवृत्ति होती है । जब सुकृत के प्रति अनुराग जाग्रत होता है तभी सुकृत के भण्डार श्री अरिहन्तादि की शरण-चाह उत्पन्न होती है। श्री अरिहन्तादि का नमस्कार दुष्कृतगर्दा तथा सुकृतानुमोदन का परिणाम है। इसी से वह एक अोर तो सहजमल का ह्रास करता है वहीं दूसरी ओर जीव की भव्यत्व भावना का विकास करता है। जव दोषापहार की भावना से तथा गुण प्राप्ति के लक्ष्य से सर्व दोपो से रहित एवं सर्व गुणो से युक्त की शरण स्वीकार होती है तभी नमस्कार सार्थक बनता है। पाप नाशक एव मगलोत्पादक-नवकार की चूलिका मे कहा गया है कि नवकार पाप नाशक एवं मंगल का मूल है। सहजमल घटने से पाप का नाश होता है तथा भव्यत्व परिपक्व होने से मंगल की वृद्धि होती है। सहजमल घटने से भव्यत्व परिपक्व होता है एवं भव्यत्व परिपक्व होने से सहजमल घटता है। इस प्रकार एक दूसरे का परस्पर सम्बन्ध है। नमस्कार मे दुष्कृतगर्दा तथा सुकृतानुमोदन निहित है । दुप्कृतगीं से सहजमल घटता है तथा सुकृतानुमोदन से भव्यत्व परिपक्व होता है । सुकृत की सच्ची अनुमोदना दुष्कृतगर्दी मे तथा दुष्कृत की सच्ची गर्दा सुकृत की अनुमोदना में निहित है। दोनों मिलकर शरण रूप सिक्का बनता है। शरणरूपी सिक्के का दूसरा नाम नमस्कार भाव है। उसका साधन यह पचमगल का उच्चारण है।
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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