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________________ ४१ दूर कर लेता है । कषाय भाव मुख्यत जीव-सृष्टि के प्रति तथा विषय भाव निर्जीव सृष्टि के प्रति होता है । ज्ञानभाव से सचराचर विश्व के ज्ञाता द्रष्टा परमात्मा को किया हुआ नमस्कार अपनी ज्ञान चेतना को जाग्रत कर लेता है अर्थात् जव तक ज्ञान चेतना सम्पूर्ण रूप से श्राविर्भूत नही होती तव तक मात्र समता रूप ज्ञानसरोवर मे श्रवगाहन करते परमेष्ठियों को बार-बार आदरपूर्वक नमन श्रावश्यक है। यह नमन ज्ञान चेतना मे परिणाम रूप बनकर, जिनको नमस्कार किया जाता है उस परमेष्ठि पद की प्राप्ति करवाता है । परमात्मा का सम्मान परमात्मपद प्रदायक होने से उससे कोई बडा शुभ कर्म नही । जो कर्म का फल निष्कर्म परम पद प्राप्त करवाता है वही कर्म सर्वश्रेष्ठ कर्म है ऐसा मानने वाले महापुरुष परमेष्ठि- नमस्कार को परम कर्तव्य समझते है । परमेष्ठि- नमस्कार प्रथम तो अभिमान रूपी पाप का नाश करता है एव फिर नम्रता गुरण रूपी परम मंगल को प्रदान करता है । तत्पश्चात् इन दोनो के परिणाम स्वरूप अर्थात् अहकार के नाश एव नम्रता गुरण के लाभ से जीव स्वय शिवस्वरूप बन जाता है । ग्रहकार के नाश से कषाय का नाश एव नम्रता के लाभ से सर्वश्रेष्ठ विषय (धर्म मंगल) का लाभ होता है । उससे तुच्छ विषयो के प्रति श्रासक्ति छूट जाती है । विषयो की आसक्ति छूट जाने से कषाय की उत्पत्ति भी रुक जाती है । जिसके फलस्वरूप अप्रमाद एवं प्रकषाय गुरण की उत्पत्ति होने से आत्मा का शुद्ध निरावरण ज्ञानानन्द स्वरूप प्रकटित हो जाता है । सुख दुःख ज्ञाता एवं राग द्वेष का द्रष्टा प्रभु को सर्वस्व का दान करने से प्रभु अपने सर्वस्व का दा करते हैं । जिसके पास जो होता है वह वही देता है इस नियम
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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