SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 108
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ३६ एकत्व पृथक्त्व विभक्त आत्मा सम्यकदृष्टिजीव चैतन्य के स्वभाव एव सामर्थ्य को पहिचानता है । प्रत उसे चैतन्यभिन्न वस्तु के प्रति अन्तर्मन से राग नही होता है । प्रत्युत हेय बुद्धि होती है । उसे स्वरूप में एकत्वबुद्धि एवं पररूप मात्र मे विभक्तबुद्धि होती है । ऐसी एकत्वविभक्त आत्मा ही स्वस्वरूप मे प्रकाशित होती है क्योकि वह शुद्ध है । आत्मा की आत्मतत्त्व की महिमा प्रगाध है । राग से उसकी भिन्नता एव ज्ञान से उसकी एकता बताकर उसका आश्रय लेने का विधान शास्त्रकारो ने किया है। श्री नमस्कार मन्त्र सभी आगमो का सार कहलाता है क्योकि उसमें एकत्व - पृथक्त्व विभक्त शुद्ध श्रात्मतत्त्व क बहुमान गर्भित नमन का ग्रहण है । चैतन्य की साधना का पंथ ज्ञानमय निर्मल द्रव्यगुण पर्याय ही श्रात्मा का स्वरूप है जिनका स्वामी आत्मा है इसके अतिरिक्त वस्तु का स्वामीत्व जब श्रद्धा एव ज्ञान श्रद्धा एव ज्ञान मे से हट जाता है तब वे सम्यक् होते है । श्री नमस्कार मन्त्र ही चैतन्य की साधना का पथ है जो वीर का है, कायर का नही । श्री वीर प्रभु से प्रशस्त मार्ग पर चढे हुए भी वीर हैं जिनकी वीरता उनको इस मार्ग पर आगे बढने हेतु ग्रावश्यक वैराग्य, श्रद्धा एवं उत्साह अर्पित करती है । श्री नमस्कार मन्त्र की प्राराधना से वह वीरता पुष्ट होती है । उस मार्ग पर आगे वढने हेतु परिपह-उपसर्ग आदि सहन करने का धैर्य भी श्री नमस्कार मन्त्र की आराधना से प्रकट होता है | श्री नमस्कार मन्त्र इस स्वरूप की साधना का पथ होने से प्रारम्भ में कष्ट दायक है । परन्तु अन्त मे श्रव्यावाघ सुखदायक है । तप-अष्टक कहा है कि--- मे सदुपायप्रवृत्तानां - उपेयमधुरत्वत ज्ञानिनां नित्यमानन्द-वृद्धिरेव तपस्विनाम् ॥१॥
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy