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________________ २४ वह है कि जो शास्त्र वचन पर श्रद्धा पैदा करने में एव उस पर श्रद्धा के बाद उसे जीवन में उतारने हेतु सहायक बने । शास्त्र वचन को समझने हेतु जो प्रज्ञा आवश्यक है, उस प्रज्ञा का उपयोग अवश्य करना चाहिये। उससे विपरीत प्रज्ञा का अर्थात् कुतर्क का नही। प्रज्ञा से शास्त्र के वचन एवं उसका परमार्थ समझना सरल होता है, साथ ही उत्सर्ग-अपवाद व्यवहार निश्चया-ज्ञान-क्रिया इत्यादि के उपयोग की सच्ची दिशा समझी जाती है । सद्बुद्धि रूपी प्रज्ञा की सहायता से ही शास्त्र वचन का दुरुपयोग नहीं होता एवं सदुपयोग होता है। उससे शास्त्र वचनो की सापेक्षता समझी जाती है एवं प्रत्येक अपेक्षा का योग्य उपयोग कर जीव की क्रमिक आत्मोन्नति साधी जा सकती है। शास्त्रो का आदि वाक्य परमेष्ठि को नमस्कार है एव उसका भी आदि पद नमो है। वे शास्त्राधीनता सूचित करते है। शास्त्रो के आदि प्रकाशक देव एवं गुरु की पराधीनता ही आत्मा की स्वाधीनता प्राप्त करने का एकमात्र राजमार्ग है यह नमो पद समझाता है । शुद्ध चिद्र प रत्न ज्ञेयं दृश्यं नगम्यं मम जगति, किमप्यस्ति कार्य न वाच्यं, ध्येय श्रेयं न लभ्यं न च विशदमते, श्रेयमादेयमन्यत् । श्री मत्सर्वज्ञ-वाणी-जल-निधि-मथनात्, शुद्धचिद्र पस्त्नं । यस्मात् , लब्धं मयाऽ हो कथमपि विविनाऽग्राप्तपूर्व प्रियं च ।। भावार्थ श्री सर्वज्ञ भगवान् की वाणीरूपी महासागर के मथन करने से शुद्ध चिद्र प रत्न को मैंने महा भाग्य के योग से , महा प्रयत्न से प्राप्त किया है। कि जो पूर्व मे कभी भी प्राप्त नही हुआ था एव जो आनन्द से भरपूर है। जिसे प्राप्त करने के पश्चात् अव मुझे दूसरा कुछ भी जानने योग्य, दर्शन योग्य,
SR No.010672
Book TitleMahamantra ki Anupreksha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorBhadrankarvijay
PublisherMangal Prakashan Mandir
Publication Year1972
Total Pages215
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size7 MB
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