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________________ प्रस्तावना का पुत्र और सुलोचनाका पति सूचित किया है । परन्तु इस राजा 'जय' ( जयकुमार ) की जो कथा भगवजिनसेनके 'आदिपुराण' में पाई जाती है उससे वह परिग्रहपरिमाणव्रतका धारक न होकर परदारनिवृत्ति'नामके शीलव्रतका-ब्रह्मचर्याणुव्रतकाधारक मालूम होता है और उसी व्रतकी परीक्षामें उत्तीर्ण होनेपर उसे देवता द्वारा पूजातिशयकी प्राप्ति हुई थी। टीकाकार प्रभाचन्द्र भी इस सत्यको छिपा नहीं सके और न प्रयत्न करने पर भी इस कथाको पूरी तौरस 'परिग्रहपरिमाण' नामके अणुव्रतकी बना सके हैं। उन्होंने शायद मूल के अनुरोधसे यह लिख तो दिया कि 'जय' परिमितपरिग्रही था और स्वर्गम इन्द्रने भी उसके इस परिग्रहपरिमाणवतकी प्रशंसा की थी परन्तु कथामें वे अन्ततक उसका निर्वाह पूरी तोरसे नहीं कर सके । उन्होंने एक देवताको स्त्रीके रूपमं भेजकर जो परीक्षा कराई है उससे वह जयके शीलवतकी ही परीक्षा हो गई है । श्रादिपुराणमें, इस प्रसंगपर साफ़ तौरसे जयके शीलमाहात्म्यका ही उल्लेख किया है. जिसके कुछ पद्य इस प्रकार हैं अमरेन्द्र सभामध्ये शीलमाहात्म्यशंसनं । जयस्य तत्प्रियायाश्च प्रवेति कदाचन ॥२६०।। श्रुत्वा तदादिमें कल्पे रविप्रभविमानजः । श्रीशो रविप्रभाख्येन तच्छीलान्वेपणं प्रति ॥२६॥ प्रेपिता कांचना नाम देवी प्राप्य जयं सुधीः । स्वानुरागं जये व्यक्तमकरोद्विकृतेक्षणा ।। तदुष्टचेष्टितं दृष्ट्वा मा मंस्था पापमीदशं ॥२६७॥ सोदर्या त्वं ममादायि मया मुनिवराबतं । परांगनांगसंसर्गसुखं मे विषभक्षणं ॥२६॥
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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