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________________ ४४ समीचीन धर्मशास्त्र किया गया है—यह नहीं कहा गया कि केवल उपवास तथा एकमुक्तके दिन ही सामायिक करना चाहिये। फिर भी इससे कभी कोई यह न समझ ले कि दूसरे दिन अथवा नित्य सामायिक करनेका निषेध है अतः आचार्यमहोदयने अगले पद्य में इस बात को स्पष्ट कर दिया है और लिख दिया है कि नित्य भी (प्रतिदिवसमपि) निरालसी होकर सामायिक करना चाहिये । वह अगला पद्य इस प्रकार है सामयिकं प्रतिदिवसं यथावदप्यनलसेन चेतव्यं । व्रत पंचकपरिपूरणकारणमवधानयुक्तेन ||१०१ || इस पद्म में 'प्रतिदिवस' के साथ 'अपि' 'शब्द खास तौर से ध्यान देने योग्य है और वह इस पयसे पहले 'प्रतिदिवससामायिक' से भिन्न किसी दूसरे विधानको माँगता है । यदि पहला पद्य ग्रन्थ से निकाल दिया जाय तो यह 'अपि' शब्द बहुत कुछ खटकने लगता है । अतः उक्त पद्य क्षेपक नहीं है और न अगले पद्यके साथ उसका कोई विरोध जान पड़ता है। उसे अनभिज्ञक्षेपक' बतलाना अपनी ही अनभिज्ञता प्रकट करना है। मालूम होता है कि बाकलीवालजीका ध्यान इस 'अप' शब्द पर नहीं गया और इसीसे उन्होंने इसका अनुवाद भी नहीं दिया। साथ ही, उस अनभिज्ञक्षेपकका अर्थ भी उन्हें ठीक प्रतिभासित नहीं हुआ । यही वजह है कि उन्होंने उसमें व्यर्थ ही 'केवल' और 'ही' शब्दोंकी कल्पना की और उन्हें दक्षेपकत्व के हेतुस्वरूप यह भी लिखना पड़ा कि इस पद्यका अन्वय ही ठीक नहीं बैठता । अन्यथा, इस पद्यका अन्वय कुछ भी कठिन नहीं है--'सामयिकं चनीयात्' को पद्य के अन्तमें कर देनेसे सहज में ही अन्वय हो जाता है। दूसरे के अन्वयार्थ तथा विषय - सम्बन्धकी भी प्राय: ऐसी ही हालत है । उन्हें भी आपने उस वक्त ठीक तौर से समझा मालूम नहीं होता और इसलिये उनका वह सब उल्लेख
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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