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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र का अभाव हो जाने पर वेदनीयकर्मको सुधादि-वेदनाओंके उत्पन्न करने में असमर्थ बतलाया है। इस तरह मूल 'श्राप्तमीमांसा' ग्रन्थ, उसके ६३वीं कारिकामहित ग्रन्थसन्दर्भ, अष्टसहस्री आदि टीकाओं और ग्रन्थकारके दूसरे ग्रन्थोंके उपयुक्त विवेचन परसे यह भले प्रकार स्पष्ट है कि रत्नकरण्डका उक्त 'क्षुत्पिपासा' पद्य स्वामी समन्तभद्रके किसी भी ग्रन्थ तथा उसके आशयके साथ कोई विरोध नहीं रखताअर्थात् उसमें दोषका क्षुत्पिपासादिके अभावरूप जो स्वरूप समझाया गया है वह आप्तमीमांसाके ही नहीं, किन्तु आप्तमीमांसाकारकी दूसरी भी किसी कृतिके विरुद्ध नहीं है बल्कि उन सबके साथ सङ्गत है । और इसलिये उक्त पद्यको लेकर आप्तमीमांसा और रत्नकरण्डका भिन्नकर्तृत्व सिद्ध नहीं किया जा सकता। अतः इस विषयमें प्रोफेसर साहबकी उक्त आपत्ति एवं संदिग्धताके लिये कोई स्थान नहीं रहता-वह किसी तरह भी समुचित प्रतीत नहीं होती। यह सब 'विचार और निर्णय' आजसे कोई १३ वर्ष पहले फरवरी सन १६४८ की अनेकान्त-किरण नं०२ में प्रकाशित किया जा चुका है, जिस पर प्रो० साहबने आज तक कोई आपत्ति नहीं की अथवा करना उचित नहीं समझा और इससे यह मालूम होता है कि उनका प्रकृत-विषयमें निश्चयकी हद तक पहुँचा हुआ सन्देह समाप्त हो चुका है-उसके लिये कोई आधार अवशिष्ट नहीं रहा, अन्यथा वे चुप बैठनेवाले नहीं थे। यहाँ पर मैं इतना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि प्रो. साहबने अपने उस विलुप्त-अध्याय-विषयक निबन्धमें यह भी प्रतिपादन किया था कि 'रत्नकरण्डाघकाचार कुन्दकुन्दाचार्यके उपदेशोंके पश्चात उन्हींके समर्थन में लिखा गया है, और इसलिये इसके कर्ता वे समन्तभद्र हो सकते हैं जिनका
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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