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________________ प्रस्तावना प्रदर्शन होने के साथ-साथ प्रोफेसर साहबकी इस शङ्काका भी समाधान हो जाता है कि यदि केवलीके सुख-दुखकी वेदना माननेपर उनके अनन्तसुख नहीं बन सकता तो फिर कर्मसिद्धान्तमें केव लीक माता और असाता वेदनीयकर्मका उदय माना ही क्यों जाता.: और वह इस प्रकार है___ "सगसहाय-घादिकम्माभावेण णिस्सत्तिमावण्या-असादावेदणीयउदयादो भुक्खा-तिसागमणुप्पत्तीए गिप्फलस्स परमाणुपुजस्स समयं पडि परिसद(ड)तम्म कथमुदय-ववार सो ? ण, जीव-कम्म-विवेगमत्त-कल्ले दट्टरा दयस्य फलत्तमन्भुवगमादो ।" ---- वीरसेवामन्दिर-प्रति पृ० ३०५, पारा-प्रति पृ० ७४? शङ्का ---अपने सहायक घातिया कर्मोका अभाव होनेके कारण निःशक्तिको प्राप्त हुए असातावेदनीयकर्मके उदयसे जब ( केवली में) जुधा-तृपाकी उत्पत्ति नहीं होती तब प्रतिसमय नाशको प्राप्त होनेवाले (असातावदनीयकर्मके) निष्फल परमाणु-पुञ्जका कैसे उदय कहा जाता है ? समाधान --यह शङ्का ठीक नहीं; क्योंकि जीव और कमका विवेक-मात्र फल देखकर उदयके फलपना माना गया है। एसी हालतमें प्रोफेसर साहबका वीतराग-सर्वज्ञके दुःखकी वंदनाके स्वीकारको कर्मसिद्धान्तके अनुकूल और अस्वीकारको प्रतिकूल अथवा असङ्गत बतलाना किसी तरह भी युक्ति-सङ्गत नहीं ठहर सकता और इस तरह प्रन्थसन्दर्भके अन्तर्गत उक्त ६२वीं कारिकाकी दृष्टिसे भी रत्नकरण्डके उक्त छठे पत्रको विरुद्ध नहीं कहा जा सकता। समन्तभद्रके दूसरे ग्रन्थोंकी छानबीन___अब देखना यह है कि क्या समन्तभद्रके दूसरे किसी ग्रन्थमें एसी कोई बात पाई जाती है जिससे रत्नकरण्डके उक्त । अनेकान्त वर्ष ८, किरण २, पृष्ट ८६ ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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