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________________ प्रस्तावना जाता है उसी प्रकार निःसत्व हुए वेदनीयकर्मके परमाणुओंको भी वेदनीयकर्मके ही परमाणु कहा जाता है, और इस दृष्टिसे ही आगममें उनके उदयादिककी व्यवस्था की गई है। उसमें कोई प्रकारकी बाधा अथवा सैद्धान्तिक कठिनाई नहीं होती और इसलिये प्रोफेसर साहबका यह कहना कि "क्षुधादि दोपोंका अभाव मः ने पर केवलीमें अघातियाकर्मीके भी नाशका प्रसङ्ग आता है उसी प्रकार युक्तिसंगत नहीं है जिस प्रकार कि धूमके अभावमें अग्निका भी अभाव बतलाना अथवा किसी औषधप्रयोगमें विषद्रव्यकी मारणशक्ति के प्रभावहीन हो जाने पर विपद्रव्यके परमाणुओंका ही अभाव प्रतिपादन करना । प्रत्युत इसके, घानिया कर्मोंका अभाव होने पर भी यदि वेदनीयकर्मके उदयादिवश केवली में सुधादिकी वेदनाओंको और उनके निरसनार्थ भोजनादिके ग्रहणकी प्रवृत्तियोंको माना जाता है तो उससे कितनी ही दुर्निवार सैद्धान्तिक कठिनाइयाँ एवं बाधाएँ उपस्थित होती हैं, जिनमेंस दा तीन नमूनेक तौर पर इस प्रकार है: (क) यदि असातावेदनीयक उदय वश केवलीको भूख-प्यासकी वेदनाएँ सताती हैं, जो कि संक्लेश परिणामकी अविनाभाविनी हैं, तो केवलीमें अनन्त सुखका होना बाधित ठहरता है। और उस दुःखको न सह सकनेके कारण जब भोजन ग्रहण किया जाता है तो अनन्तवीर्य भी बाधित हो जाता है-उसका कोई मूल्य नहीं रहता-अथवा वीर्यान्तरायकर्मका अभाव उसके विरुद्ध पड़ता है। (ख) यदि क्षुधादि वेदनाओंके उदय-वश केवलीमें भोजनादि की इच्छा उत्पन्न होती है तो केवलीके मोहकर्मका अभाव कुमा . . * अनेकान्त वर्ष ७ किरण ७-८ पृ० ६२ । संकिलेसाविणाभावरणीए भुक्खाए दज्झमारणस्स (धवला या
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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