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________________ प्रस्तावना २३ किया जाता है । घातिया कर्मके क्षय हो जाने पर इन दोनोंकी सम्भावना भी नष्ट हो जाती है। इस तरह घातिया कर्मोके क्षय होने पर क्षुत्पिपासादि शेष छहों दोषोंका अभाव होना भी अष्टसहस्री-सम्मत है, ऐसा समझना चाहिये। वसुनन्दि-वृत्ति में तो दूसरी कारिकाका अर्थ देते हुए, "क्षुत्पिपासाजरारुजाऽपमृत्वाद्यभावः इत्यर्थः” इ. पाक्यके द्वारा क्षुधा-पिपासादिके अभावको साफ तौर पर विग्रहादिमहोदयके अन्तर्गत किया है, विग्रहादि-महोदय को अमानुपातिशय लिखा है तथा अतिशयको पूर्वावस्थाका अतिरेक बतलाया है । और छठी कारिकामें प्रयुक्त हुए 'निर्दोष' शब्द के अर्थ में आ वद्या-रागादिके माथ सुधादिके अभावको भी सूचित किया है । यथाः____ "निर्दोष अविद्यारागादिविरहितः क्षुदादिविरहितो वा अनन्तज्ञानादिसम्बन्धेन इत्यर्थः ।" इस वाक्यमें 'अनन्तन्नानादि-सम्बन्धेन' पद 'तुदादिविरहितः' पदके साथ अपनी खास विशेषता एवं महत्व रखता है और इस बातको सूचित करता है कि जब आत्मामें अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन, अनन्तसुख और अनन्तवीर्यकी आविर्भूति होती है तब उसके सम्बन्धसे सुधादि दोषोंका स्वतः अभाव होजाता है अर्थात् उनका अभाव हो जाना उसका आनुषङ्गिक फल हैउसके लिये वेदनीय कर्मका अभाव-जैसे किसी दूसरे साधनके जुटने-जुटानेकी जरूरत नहीं रहती । और यह ठीक ही है; क्योंकि मोहनीयकर्मके साहचर्य अथवा सहायके बिना वेदनीयकर्म अपना कार्य करने में उसी तरह असमर्थ होता है जिस तरह झानावरणकर्मके क्षयोपशमसे उत्पन्न हुआ ज्ञान वीर्यान्तरायकर्मका अनुकूल सयोपशम साथमें न होनेसे अपना कार्य करने में समथे नहीं होता; अथवा चारों घातिया कर्मोका अभाव हो जाने
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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