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________________ प्रस्तावना २१ विषय में क्या अभिमत अथवा अभिप्राय हैं और उसे प्रोफेसर साहब ने कहाँ से अवगत किया है ? - मूल आप्तमीमांसापरसे ? आप्तमीमांसाकी टीकाओं पर से ? अथवा आप्तमीमांसाकारके दूसरे ग्रन्थीपरसे ? और उसके बाद यह देखना होगा कि रत्नकरण्डकं 'तुलिपासा' नामक पद्य के साथ वह मेल खाता अथवा सङ्गत बैठता है या कि नहीं । प्रोफेसर साहब ने श्राप्तमीमांसाकारके द्वारा अभिमत दोपके स्वरूपका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं किया- अपने अभिप्रायानुसार उसका केवल कुछ संकेत ही किया है । उसका प्रधान कारण यह मालूम होता है कि मूल आप्तमीमांसा में कहीं भी दोपका कोई स्वरूप दिया हुआ नहीं है। 'दोष' शब्द का प्रयोग कुल पाँच कारिकाओं नं० ४. ६,५६,६०, ८० में हुआ है, जिनमें से पिछली तीन कारिकाओं में वृद्रयसंचरदोष वृत्तिदोष और प्रतिज्ञादोष तथा हेतुदीपका क्रमशः उल्लेख है, आप्तदोपसे सम्बन्ध रखनेवाली केवल थी तथा ६टी कारिका ही है । और वे दोनों ही 'दोष' के स्वरूप कथनसे रिक्त हैं । और इसलिये दोषका अभिमत स्वरूप जानने के लिये आप्तमीमांसाकी टीका तथा आप्तमीमांसाकारकी दूसरी कृतिओं का आश्रय लेना होगा । साथ ही, ग्रन्थके संदर्भ अथवा पूर्वापर कथन - सम्बन्धको भी देखना होगा । टीकाओंका विचार - प्रोफेसर साहबने ग्रन्थसन्दर्भके साथ टीकाओंका आश्रय लेते हुए, अष्टसहस्रीटीकाके आधार पर, जिसमें अकलङ्कदेवकी अष्टशती टीका भी शामिल है, यह प्रतिपादित किया है कि 'दोषावरणयोर्हानि:' इस चतुर्थ कारिका-गत वाक्य और 'सत्वमेवासि निर्दोष:' इस छठी कारिकागत वाक्य में प्रयुक्त 'दोष'
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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