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________________ प्रस्तावना १६ Samantabhadra. having again taken diksha, composed the Ratnakarandaka & other Jinagam, Purans & become a professor of Syadvada. यद्यपि 'आयितवा ' यह नाम बहुत ही अश्रुतपूर्व जान पड़ता है और जहाँ तक मैंने जैन साहित्यका अवगाहन किया है मुझे कि भी दूसरी जगहसे इस नामकी उपलब्धि नहीं हुई। तो भी इतना संभव है कि 'शान्तिवर्मा' की तरह 'आयितवर्मा' भी समन्तभद्रक गृहस्थजीवनका एक नामान्तर हो अथवा शान्तिवाकी जगह गलतीसे ही यह लिख गया हो । यदि ऐसा कुछ नहीं है तो उपर्युक्त प्रमाण-समुच्चयके आधार पर मुझे इस कहने में ज़रा भी संकोच नहीं हो सकता कि राइस साहबका इस ग्रन्थ को आयितवर्माका बतलाना बिलकुल गलत और भ्रममूलक है, उन्हें अवश्य ही इस उल्लेखके करने में कोई ग़लतफ़हमी अथवा विप्रतिपत्ति हुई है । अन्यथा यह ग्रन्थ स्वामी समन्तभद्रका ही बनाया हुआ है और उन्हींके नामसे प्रसिद्ध है। प्रसन्नताका विषय है कि उक्त पुस्तकके द्वितीय संस्करणमें, जो सन् १६२३ में प्रकाशित हुआ है, राइस साहबकी उक्त गलती का सुधार कर दिया गया है और साफ तौर पर 'रत्नकरण्डक आफ समन्तभद्र' ( Ratnakarandaka of Samantabhadra ) शब्दोंके द्वारा 'रत्नकरंडक' को समन्तभद्रका ही ग्रन्थ स्वीकार किया है। नया सन्देह ___ कुछ वर्ष हुए प्रोफेसर हीरालालजी जैन एम० ए० ने 'जैन इतिहासका एक विलुप्त अध्याय' नामक निबन्ध लिखा था, जो जनवरी सन् १६४४ को होने वाले अखिल भारतवर्षीय प्राच्य सम्मेलनके १२ वें अधिवेशन पर बनारसमें पढ़ा गया था। इस
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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