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________________ प्रस्तावना थे। उस वक्त तक श्रावकधर्ममें अथवा स्वाचार-विषयपर श्रावकों में तर्कका प्रायः प्रवेश ही नहीं हुआ था और न नाना आचार्यों का परस्पर इतना मतभेद ही हो पाया था जिसकी व्याख्या करने अथवा जिसका सामंजस्य स्थापित करने आदिके लिये किसीको तक-पद्धतिका आश्रय लेने की जरूरत पड़ती। उस वक्त तर्कका प्रयोग प्रायः स्वपरमतके सिद्धान्तों तथा आप्तादि विवादग्रस्त विषयोंपर ही होता था । वे ही तर्ककी कसौटीपर चढ़े हुए थे, उन्हींकी परीक्षा तथा निर्णयादिके लिये उसका सारा प्रयास था। और इसलिये उस वक्तके जो तर्कप्रधान ग्रन्थ पाये जाते हैं वे प्रायः उन्हीं विषयोंको लिये हुए हैं । जहाँ विवाद नहीं होता वहाँ तर्कका काम भी नहीं होता । इसीसे छन्द, अलंकार, काव्य, कोश, व्याकरण, वैद्यक, ज्योतिषादि दूसरे कितने ही विषयोंके ग्रन्थ तर्कपद्धतिस प्रायः शून्य पाये जाते हैं। खुद स्वामी समन्तभद्र का स्तुतिविद्या ( जिनशतक ) नामक ग्रन्थ भी इसी कोटि में स्थित है-स्वामीक द्वारा निर्मित होनेपर भी उसमें 'देवागम' जैसी तर्कप्रधानता नहीं पाई जाती--वह एक कठिन शब्दालंकारप्रधान प्रन्थ है और प्राचायमहोदयकं अपूर्व काव्यकौशल, अद्भुत व्याकरणपाण्डित्य और अद्वितीय शव्दाधिपत्यको सूचित करता है। 'रत्नकरंड' भी उन्हीं तकप्रधानतारहित ग्रन्थों मेंस एक ग्रन्थ है और इसलिये उमकी यह तर्कहीनता संदेहका कोई कारण नहीं हो सकती; और फिर ऐसा भी नहीं कि रत्नकरण्डमें तकसे बिल्कुल काम ही न लिया गया हो । आवश्यक तर्कको यथावसर बराबर स्थान दिया गया है जिसका, जरूरत होने पर, अच्छा स्पष्टीकरण किया जा सकता है। यहाँ सूचनारूपमें एसे कुछ पद्योंक नम्बरोंको नोट किया जाता है जिनमें तर्कसे कुछ काम लिया गया है अथवा जो तर्कहष्टिको लक्ष्यसे लेकर लिखे गये है:-५, ८, ६. २५, २६, २७, २६, ३३, ४७, ४८, ५३, ५६,
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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