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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र (७) श्रीवादिराजसूरि नामके सुप्रसिद्ध विद्वान् आचार्यने अपना पार्श्वनाथचरित' शक संवत् ६४७ में बनाकर समाप्त किया है । इस ग्रन्थमें माफ तौरसे 'देवागम' और 'रत्नकरंडक' दोनोंके कर्ता स्वामी समन्तभद्रको ही सूचित किया है । यथा 'स्वामिनश्चरितं तस्य कस्य नो विस्मयावहं । देवागमेन सर्वज्ञो यनाद्यापि प्रदर्श्यते ॥ त्यागी स एव योगीन्द्रा येनाक्षय्यसुखावहः । अर्थिने भव्यमार्थाय दिष्टो रत्नकरण्डकः ।। अर्थात्--उन स्वामी ( समंतभद्र) का चरित्र किसके लिये विस्मयकारक नहीं है जिन्होंने 'देवागम' नामके अपने प्रवचनद्वारा आज भी सर्वज्ञको प्रदर्शित कर रक्खा है। xxx वे ही योगीन्द्र ( समंतभद्र ) त्यागी (दानी) हुए हैं जिन्होंने मुखार्थी भव्यसमूहके लिये अक्षयसुखका कारणभूत धर्मरत्नोंका पिटारा'रत्नकरंड' नामका धर्मशास्त्र-दान किया है। इन सब प्रमाणों की मौजूदगीमें इस प्रकारके संदेहका कोई अवसर नहीं रहता कि, यह ग्रन्थ 'देवागम' के कर्ता स्वामी समन्तभद्रको छोड़कर दूसरे किसी समन्तभद्रका बनाया हुआ है, अथवा आधुनिक है । खुद ग्रन्थका साहित्य भी इस संदेहमें हमें कोई सहायता नहीं देता । वह विषयकी सरलता आदिकी दृष्टिमे प्रायः इतना प्रौढ़, गंभीर, उच्च और क्रमबद्ध है कि उसे स्वामी समन्तभद्रका साहित्य स्वीकार करने में ज़रा भी हिचकिचाहट नहीं होता। ग्रन्थभरमें ऐसा कोई कथन भी नहीं है जो आचार्यमहोदयके दूसरे किसी ग्रन्थके विरुद्ध पड़ता हो, अथवा जो जैनसिद्धान्तोंके ही प्रतिकूल हो और जिसको प्रचलित करनेके लिये किसीको भगवान् समन्तभद्रका सहारा लेना पड़ा हो। ऐसी हालतमें और उपयुक्त प्रमाणोंकी रोशनीमें इस बातकी तो कल्पना
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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