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________________ १० समीचीन धर्मशास्त्र यह वह पद है जिससे 'देवागम' के कर्ता महोदय खास तौरसे विभूषित थे और जो उनकी महती प्रतिष्ठा तथा असाधारण महत्ताका द्योतक है । बड़े-बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंने उन्हें प्रायः इसी (स्वामी) विशेषरण के साथ स्मरण किया है और यह विशेपण भगवान समन्तभद्र के साथ इतना रूढ जान पड़ता है कि उनके नामका प्राय: एक अंग हो गया है। इसीसे कितने ही बड़ेबड़े विद्वानों तथा आचार्योंने, अनेक स्थानोंपर नाम न देकर, केवल 'स्वामी' पदके प्रयोग द्वारा ही उनका नामोल्लेख किया है। और इससे यह बात सहज ही समझ में आ सकती है कि 'स्वामी' रूपसे आचार्य महोदयकी कितनी अधिक प्रसिद्धि थी । ऐसी हालत में यह ग्रंथ लघुसमंतभद्रादिका बनाया हुआ न होकर उन्हीं समन्तभद्र स्वामीका बनाया हुआ प्रतीत होता है जो 'देवागम' नामक आप्तमीमासाग्रंथ के कर्ता थे (३) 'राजावलिकथे' नामक कनड़ी ग्रंथ में भी, स्वामी समन्तभद्रकी कथा देते हुए, उन्हें 'रत्नकरण्ड' आदि ग्रन्थोंका कर्ता लिखा है । यथा " भावितीर्थकर अप्य समन्तभद्रस्वामिगलु पुनद्दींक्षेगाण्डु तपस्सामर्थ्यादि चतुरङ्गल चारणात्वमं पडेदु रत्नकरण्डकादिजिनागमपुराणमं पल्लि स्वाद्वादवादिगल आगि समाधिय् ओडेदरु ।" f देखो - वादिराजकृत पार्श्वनाथचरितका 'स्वामिनश्चरितं तस्य' इत्यादि पद्य नं० १७ पं० प्राशाधरकृत सागारधर्मामृत और अनगारधर्मामृतकी टीकाओंके 'स्वाम्युक्ताष्टमूलगुरणपक्षे, इतिस्वामिमतेन दर्शनिको भवेत्, स्वामिमतेनत्विमे ( प्रतिचारा: ), अत्राह स्वामी यथा, च स्वामिसूक्तानि इत्यादि पद; न्यायदीपिकाका 'तदुक्त ं स्वामिभिरेव' इस वाक्य के साथ देशगमकी दो कारिकाोंका अवतरण और श्रीविद्यानंदाचार्यकृत प्रष्टसहस्त्री आदि ग्रन्थोंके कितने ही पद्य तथा वाक्य । तथा
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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