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________________ समीचीन-धर्मशाख चिन्तासे विनिवृत्तिकी अवस्थामें-स्थित. हुश्रा मन-वचन-कायरूप तीनों योगोंकी शुद्धि-पूर्वक तीनों संध्याओं (पूर्वान्ह, मध्यान्ह, अपरान्ह) के समय वन्दना-क्रिया करता है वह 'सामयिक' नामका -तृतीयप्रतिमाधारी-श्रावक है।' व्याख्या—यहाँ भागम-विहित कुछ समयाचारका सांकेतिक रूपमें उल्लेख है,जो आवतों, प्रणामों, कायोत्सगों तथा उपवेशनों आदिसे संबद्ध है, जिनकी ठीक विधिव्यवस्था विशेषज्ञोंके द्वारा ही जानी जा सकती है। श्रीप्रभाचन्द्राचार्यने टीकामें जो कुछ सूचित किया है उसका सार इतना ही है कि एक एक कायोत्सर्गके विधानमें जो ‘णमो अरहंताणं' इत्यादि सामायिक-दण्डक और 'थोस्सामि' इत्यादि स्तव-दण्डककी व्यवस्था है उन दोनोंके आदि और अन्तमें तीन तीन आवोंके साथ एक एक प्रणाम किया जाता है, इस तरह बारह आवते और चार प्रणाम करने होते हैं। साथ ही, देववन्दनाके आदि तथा अन्तमें जो दो उपवेशन क्रियाएँ की जाती हैं उनमें एक नमस्कार प्रारम्भकी क्रियामें और दूसरा अन्तकी क्रियामें बैठकर किया जाता है। इसे पं० आशाधरजीने मतभेदके रूपमें उल्लेखित करते हुए यह प्रकट किया है कि स्वामी समन्तभद्रादिके मतसे वन्दनाकी आदि और समाप्तिके इन दो अवसरों पर दो प्रणाम बैठ कर किये जाते हैं और इसके लिये प्रभाचन्द्रकी टीकाका आधार व्यक्त किया है * । * 'मतान्तरमाह-मते इष्टे, के द्वे नती । कैः कश्चित् स्वामिममन्त भद्रादिभिः । कस्मान्नमनात् प्रणमनात् । किं कृत्वा ? निविश्य उपविश्य । कयो: ? वन्दनाद्यन्तयोर्वन्दनाया: प्रारम्भे समा नौ च । यथाहस्तत्र भगवन्त: श्रीमत्प्रभेन्दुदेवपादा रत्नकरण्डक-टीकायाँ 'चतुरावर्तत्रितय' इत्यादिसूत्रे द्विनिषद्य इत्यस्य व्याख्याने “देववन्दनां कुर्वता हि प्रारम्भे समाप्तौ चोपविश्य प्रणाम: कर्तव्य इति । -अनगारधर्मामृत-टीका प० ६०८
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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