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________________ १७५ कारिका १३७ ] - दर्शनिक-श्रावक-लक्षण सल्लेखनाके अनुष्ठातासे सम्बन्ध नहीं रखते। सल्लेखनाका अनुष्ठान तो प्रत्येक पदमें स्थित श्रावकके लिए विहित है; जैसा कि चारित्रसारके निम्न वाक्यले भी जाना जाता है “उक्तैरुपासकारणान्तिकी सल्खेखना प्रीत्या सेव्या ।" यहाँ पर एक बात खासतौरसे ध्यानमें रखने योग्य है और वह यह कि वे पद अथवा गुणस्थान गुणोंकी क्रमविवृद्धिको लिये हुए हैं अर्थात् एक पद अपने उस पदके गुणोंके साथमें अपने पूर्ववर्ती पद या पदोंके सभी गुणोंको साथमें लिये रहता है--ऐसा नहीं कि 'यागे दौड़ पीछे चौड़' की नीतिको अपनाते हुए पूर्ववर्ती पद या पदाक गुणोंमें उपेक्षा धारण की जाय, वे सब उत्तरवर्ती पदक अंगभूत होते हैं-उनके बिना उत्तरवर्ती पद अपूर्ण होता है और इसलिये पदवृद्धिके साथ आगे क़दम बढ़ाते हुए वे पूर्वगुण किसी तरह भी उपेक्षणीय नहीं होते—उनके विषयमें जो सावधानी पूर्ववर्ती पद व पदोंमें रक्खी जाती थी वही उत्तरवर्ती पद या पदोंमें भी रक्खी जानी चाहिये । दर्शनिक-श्रावक-लक्षा सम्यग्दर्शनशुद्धः संसार-शरीर-भोग-निविण्णः । पंचगुरु-चरण-शरणो दर्शनिकस्तत्त्वपथगृह्यः ॥१२॥१३७॥ जो सम्यग्दर्शनसे शुद्ध है अथवा निरतिचार-सम्यग्दर्शनका धारक है, संसारसे शरीरसे तथा भोगोंसे विरक्त है-उनमें आसक्ति नहीं रखता-पंचगुरुओंके चरणोंकी शरणमें प्राप्त है-- अर्हन्तादि पंचपरमेष्ठियोंके पदों, पद-वाक्यों अथवा प्राचारोंको अपायपरिरक्षकके रूपमें अपना आश्रयभूत समझता हुआ उनका भक्त बना 3 इस सम्बन्धकी बातको टीकाकार प्रभाचन्द्रने अपने निम्न प्रस्तावना-वाक्यके द्वारा प्रयुक्त किया है'साम्प्रतं योऽसौ सल्लेखनाऽनुष्ठाता तस्य कति प्रतिमा भवन्तीत्याशंक्याह'
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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