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________________ कारिका ८६ ] अनिष्टादिपदार्थोके त्वागका विधान १२७ ___ अनिष्टादिपदार्थोके त्यागका विधान यदनिष्टं तद्वतयेद्यच्चाऽनुपसेव्यमेतदपि जयात् । अभिसन्धिकृताविरतिविषयायोग्याव्रतं भवति ॥२०॥८६॥ ___यावकोंको चाहिये कि वे) भोगोपभोगका जो पदार्थ अनिष्ट हो-शरीरमें बाधा उत्पन्न करनेके कारण किसी समय अपनी प्रकृतिके अनुकूल न हो अथवा अन्य किसी प्रकारसे अपनेको रुचिकर न होकर हानिकर हो--उसे विरति-निवृत्तिका विषय बनाएँ अर्थात छोड़दें और जो अनुपसेव्य हो--अनिष्ट न होते हुए भी गहिन हो, देश-राष्टसमाज-सम्प्रदाय आदिकी मर्यादाक बाहर हो अथवा सेव्याऽसव्यकी किसी दूसरी दृष्टिसे सेवन करनेके योग्य न हो-उसको भी छोड़ देना चाहिये। (क्योंकि) योग्य विषयसे भी संकल्पपूर्वक जो विरक्ति होती है वह 'व्रत' कहलाती है-व्रत-चारित्रके फलको फलती है। च्याख्या--संकल्पपूर्वक त्याग न करके जो यों ही अनिष्ट तथा अनुपसेव्य पदार्थोंका सेवन नहीं किया जाता, उस त्यागमे व्रतफलकी कोई सम्प्राप्ति नहीं होती-व्रत-फलकी सम्प्राप्तिके लिये संकल्पपूर्वक अथवा प्रतिज्ञाके साथ त्यागकी जरूरत है, उसके द्वारा उनका वह न सेवन सहजमें ही व्रत-फलको फलता है । इसीसे आचार्यमहोदयने यहाँ भोगोपभोगपरिमाणके अवसरपर श्रावकोंको अनिष्टादि-विषयोंके त्यागका परामर्श दिया है । अनुपसेव्यमें देश, राष्ट्र, समाज, सम्प्रदाय आदिकी दृष्टिसे कितनी ही वस्तुओंका समावेश हो सकता है। उदाहरणके तौर पर स्त्रियोंका ऐसे अति महीन एवं झीने वस्त्रोंका पहनना जिनसे उनके गुह्य अंग तक स्पष्ट दिखाई पड़ते हों भारतीय संस्कृतिकी दृष्टि से गर्हित हैं और इसलिये वे अनुपसेव्य हैं ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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