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________________ ११६ समीचीन धर्मशास्त्र [ श्र० ४ करता है कि मन-वचन-कायकी जो पापप्रवृत्ति स्थूलत्यागके अनुरूप अपने किसी प्रयोजनकी सिद्धिके लिये की जाती है उसका यहाँ ग्रहण नहीं है, यहाँ उस पापप्रवृत्तिका ही ग्रहरण है जो निरर्थक होती है, जिसे लोकमें 'गुनाह बेलज्जत' भी कहते हैं और जिससे अपना कोई प्रयोजन नहीं सधता, केवल पाप ही पाप पल्ले पड़ता है । पापयोगका यह 'अपार्थक' विशेषण अनर्थदण्डके उन सभी भेदोंके साथ सम्बद्ध है जिनका उल्लेख अगली कारिकाओं में किया गया है । अर्थदण्डके भेद पापोपदेश- हिंसादानाऽपध्यान- दुःश्रुतीः पंच । प्राहुः प्रमादचर्यामनर्थदण्डानदण्डधराः ||६||७५|| " पापोपदेश, हिंसादान, अपध्यान, दु:श्रुति (और) प्रमादचर्या, इनको अदण्डधर - मन-वचन-कायके अशुभ व्यापारको न धरनेवाले गणधरादिकदेव – पांच अनर्थदण्ड बतलाते हैं- इनसे विरक्त होनेके कारण अनर्थदण्ड व्रतके पांच भेद कहे जाते हैं । व्याख्या - यहाँ इस कारिका में अनर्थदण्डों के सिर्फ पांच नाम दिये हैं, इनसे विरक्त होने का नाम पूर्व- कारिका के अनुसार व्रत है और इसलिए विषय भेदसे अनर्थदण्डव्रत के भी पाँच भेद हो जाते हैं। इन अनर्थदण्डोंके स्वरूपका क्रमशः वर्णन ग्रन्थकारमहोदय स्वयं ग्रन्थमें आगे कर रहे हैं । पापोपदेश - लक्षण तिर्यक्क्लेश- वणिज्या - हिंसाऽऽरम्भ- प्रलंभनादीनाम् । कथा-प्रसंग प्रसवः स्मर्तव्यः पापउपदेशः ||१०||७६॥ ' तिर्यञ्चोके वाणिज्यकी तथा क्लेशात्मक - वाणिज्यकी या * 'प्रसवः कथाप्रसंग :' इति पाठान्तरम् ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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