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________________ कारिका ५७] अचौर्याणुव्रत-लक्षण व्यक्त तथा अव्यक्त दोनों प्रकारके पदार्थ शामिल हैं। 'हरति' क्रियापद, जिससे हरना फलित होता है, अनीतिपूर्वक-ग्रहणका सूचक है । उसीकी दृष्टिसे अगला क्रियापद 'दत्त' अनधिकृत रूपसे देनेका वाचक हो जाता है। और इसलिए जो पदार्थ अस्वामिक हो अथवा ग्रहणादिके समय जिसका कोई प्रकट स्वामी मौजूद या संभाव्य न हो और जिसके ग्रहणादिमें उसके स्वामीकी स्पष्ट इच्छा तथा आज्ञा वाधक न हो उसके ग्रहणादिका यहाँ निषेध नहीं है । साथ हो, जो धन-सम्पत्ति बिना दिये ही किमीको उत्तराधिकारके रूपमें प्राप्त हाती है उसके ग्रहणादिका भी इस व्रतके व्रतीके लिये निषेध नहीं है। इसी तरह जो अज्ञातस्वामिका धन-सम्पत्ति अपनी मिलकियतके मकानादिके भीतर भूगर्भादिसे प्राप्त हो उसके भी ग्रहणादिका इस व्रतकं व्रतीके लिये निषेध नहीं है, वह उस मकानादिका मालिक होनेके साथसाथ तत्सम्बद्धा सम्पत्तिका भी प्रायः मालिक अथवा उत्तराधिकारी है और यह समझना चाहिए कि वह सम्पत्ति उसकी अव्यक्त अथवा गुप्त सम्पत्तिके रूपमें स्थित थी, जबतक कि इसके विरुद्ध कोई दूसरी बात स्पष्ट सिद्ध न हो जाय या इसमें बाधक न हो। ___ यहाँ चोरीके स्थूल-त्यागकी दृष्टिसे इतना और भी जान लेना चाहिये कि जो पदार्थ बहुत ही साधारण तथा अत्यल्प मूल्यका हो और जिसका बिना दिये ग्रहण करना उसके स्वामीको कुछ भी अखरता न हो-जैसे किसीके खेतसे हस्त-शुद्धिके लिये मिट्टीका लेना, जलाशयसे पीनेको पानी ग्रहण करना और वृक्षसे दाँतनका तोड़ना-ऐसे पदार्थों को बिना दिये लेनेका त्याग इस व्रतके व्रतीके लिये विहित नहीं है । इसी तरह दूसरेकी जो वस्तु बिना संकल्पके ही अपने ग्रहणमें आ जाय उससे इस व्रत को बाधा नहीं पहुंचती; क्योंकि अहिंसाव्रतके लक्षणमें प्रयुक्त हुए ‘संकल्पात्' पदकी अनुवृत्ति इस व्रतके साथ भी है।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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