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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० १ लौकिक लाभ स्पष्ट सधता हुअा देखकर-भी कुदेव-कुआगम-कुलिंगयोंको-उन्हें कुदेव-कुग्रागम-कुलिंगी मानते हुए भी-प्रणाम (शिरोनति) तथा विनयआदिके-अभ्युत्थान हस्तांजलि आदिके-रूपमें आदर-सत्कार-न करें ।' व्याख्या-कुदेवादिकों को प्रणामादिक करनेसे अपने निर्मल सम्यग्दर्शनमें मलिनता आती है और दूसरोंके सम्यग्दर्शनको भी ठेस पहुँचती है तथा जो धर्मसे चलायमान हों उनका स्थितिकरण भी नहीं हो पाता। ऐसा करनेवालोंका अमूढदृष्टि तथा निर्मद होना उनकी ऐसी प्रवृत्तिको समुचित सिद्ध करनेके लिये कोई गारण्टी (प्रमाणपत्र) नहीं हो सकता। इन्हीं सब बातोंको लक्ष्यमें रखकर तथा सम्यग्दर्शनमें लगे हुए चल-मल और अगाढ दोषोंको दूर करनेकी दृष्टिसे यहाँ उन देवों, आगमों तथा साधुओंके प्रणाम विनयादिकका निषेध किया गया है जो कुधर्मका झंडा उठाए हुए हों । उनके उपासक जनसाधारणका-जैसे माता-पिताराजादिकका-,जोकि न देव है और न लिंगी, यहाँ ग्रहण नहीं है । और इसलिए लौकिक अथवा लोकव्यवहारकी दृष्टिसे उनको प्रणाम-विनयादिक करनेमें दर्शनकी म्लानताका कोई सम्बन्ध नहीं है। इसी प्रकार भयादिककी दृष्टि न रखकर लोकानुवर्तिविनय अथवा शिष्टाचारपालनके अनुरूप जो विनयादिक क्रिया की जाती है उससे भी उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मोक्षमार्गमें सम्यग्दर्शनका स्थान दर्शनं ज्ञान-चारित्रात्साधिमानमुपाश्नुते । दर्शनं कर्णधारं तन्मोक्षमार्गे प्रचक्षते ॥३१॥ 'सम्यग्ज्ञान और सम्यकचारित्रकी अपेक्षा सम्यग्दर्शन उत्कृष्टता ( श्रेष्ठता ) को प्राप्त है इसलिए ( सन्तजन ) मोक्षमार्गमें
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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