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________________ समीचीन-धर्मशात्र [अ०१ व्याख्या -...धर्मात्मा वही होता है जिसके पापका निरोध हैपापास्रव नहीं होता। विपरीत इसके जो पापात्रवसे युक्त है उसे पापी अथवा अधर्मात्मा समझना चाहिए। जिसके पास पापके निरोधरूप धर्मसम्पत्ति अथवा पुण्यविभूति मौजूद है उसके लिये कुल-जाति-ऐश्वर्यादिको सम्पनि कोई चीज़ नहीं-अप्रयोजनीय है। उसके अन्तरंगमें उससे भी अधिक तथा विशिष्टतर सम्पत्तिका सद्भाव है जो कालान्तरमें प्रकट होगी, और इसलिये वह तिरस्कारका पात्र नहीं । इसी तरह जिसकी आत्मामें पापास्रव बना हुआ है उसके कुल-जाति-ऐश्वर्यादिकी सम्पत्ति किसी काम की नहीं । वह उस पापाम्रवके कारण शीघ्र नष्ट हो जायगी और उसके दुर्गति-गमनादि को रोक नहीं सकेगी । ऐसी सम्पत्तिको पाकर मद करना मूखना है। जो लोग इस सम्पूर्ण तत्त्व (रहस्य) को समझते हैं व कुल, जाति तथा ऐश्वर्यादिसे हीन धर्मात्माओं का --सम्यग्दर्शनादिके धारकोंका-कदापि तिरस्कार नहीं करते। मम्यग्दर्शन-सम्पन्नमपि मातंगदेहजम् । देवा देवं विदुर्भस्मगूढाङ्गाराऽऽन्तरौजसम् ॥२८॥ 'जो मनुष्य सम्यग्दर्शनसे सम्पन्न है--सम्यक् श्रद्धानरूप धर्मसम्पत्ति से युक्त है....वाह चाण्डालका पुत्र होने पर भी-कुलादि सम्पनिसे अत्यन्त गिरा हा समझा जाने पर भी----देव है.-याराध्य है और इसलिये तिरस्कारका पात्र नही, हेमा आप्तदेव अथवा गणधरादिक देव करते है। उनकी दशा उस अंगारेके सदृश होती है जो वाह्यमें भस्म मान्छादित होनेपर भी अन्तरंग तेज तथा प्रकाशको लिये हता है, और इमिरे कदापि उप्रेक्षणीय नहीं होता । व्याख्या---मातंगदेहजम्' पद् बड़े महत्वका है और उससे यह बात जानी जाती है कि मनुष्यों में चाण्डालका
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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