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________________ कारिका २३-२४ ] पाषण्डिमूढ - लक्षण ५६ व्याख्या -- यहाँ देवताका जो विशेषण 'रागद्वेषमलीमसा:' दिया है उसमें रागद्वेपके साथ उपलक्षरण से काम-क्रोध-मान-माया-लोभमोह तथा भयादिरूप सारे दोष शामिल हैं। और इन दोषोंसे दूषित - मलिनात्मा व्यक्ति वस्तुतः देवता नहीं होते - देवता तो वे ही होते हैं जिनका आत्मा इन राग-द्वेष मोह तथा काम क्रोधादि मलोंस मलिन न होकर अपने शुद्धस्वरूपमें स्थित होता है और ऐसे देवता प्राय: वे ही होते हैं जिन्हें इस ग्रन्थ में आप्तरूपसे उल्लेखित किया है । चूंकि उन अदेवताओं या देवताभासोका देवता समझकर उनकी देवताके समान उपासना की जाती है इसी से उस उपासनाको देवतामूढमें परिगणित किया गया है और इसलिये जो लोग देव कहे जाने वाले ऐसे रागी, द्वेषी, कामी, क्रोधी तथा भयादिसे पीड़ित व्यक्तियोंकी देव बुद्धिसे उपासना करते हैं वे सम्यष्टि नहीं हो सकते । पाषण्डिमूढ - लक्षण सग्रन्थाऽऽरम्भ-हिंसानां संसाराऽऽवर्त - वर्तिनाम् । पापण्डिनां पुरस्कारो ज्ञेयं पापण्डि - मोहनम् ॥ २४ ॥ ' जो सप्रन्थ है- धन-धान्यादि परिग्रहसे युक्त हैं—आरम्भसहित हैं - कृषिवाणिज्यादि सावध कर्म करते हैं- हिनामें रत हैं, संसारके व प्रवृत्त हो रहे हैं- भवभ्रमण में कारणीभूत विवाहादि कर्मों द्वारा दुनिया के चक्कर अथवा गोरखधन्धे में फँसे हुए हैंऐसे पाखण्डियोंका - वस्तुतः पापके खण्डनमें प्रवृत्त न होनेवाले लिंगी साधुओं का जो (पाषण्डि साधुकं रूपमें अथवा सुगुर - बुद्धि से ) आदरसत्कार है उसे 'पाण्डिमूढ' समझना चाहिये ।' व्याख्या- यहां 'पाषण्डिन' शब्द अपने उस पुरातन मूलअर्थ में प्रयुक्त हुआ है जो पाप खण्डनकी दृष्टिको लिये रहता है और 'पापं खण्डयतीति पाखण्डी' इस निरुक्तिका वाक्य 'सत्साधु'
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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