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समीचीन धर्मसास्त्र
धर्म कल्पित ढकोसलोंका नाम नहीं है। धर्म तो जीवन के सुनिश्चित नियमोंकी संज्ञा है जिन्हें जैन परिभाषा में सामायिक कहते हैं । यदि गृहस्थाश्रम में रहनेवाला गृही व्यक्ति भी सामायिक नियमोंका सचाई से पालन करता है तो वह भी वस्त्रखंड उतार फेंकनेवाले मुनिके समान ही यतिभावको प्राप्त हो जाता है ( श्लो० १०२ ) । बात फिर वहीं आ जाती है जहाँ संसारके सभी ज्ञानी और तपःस्थित महात्माओंने उसे टिकाया है— हिंसा, अनृत, चोरी, मैथुन और परिग्रह, ये पांच पापकी पनालियाँ हैं । इनसे छुटकारा पाना ही चारित्र है ' ( श्लो० ४६ ) ।
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स्वामी समन्तभद्र के ये अनुभव मानवमात्रके लिये उपकारी हैं। उनका निजी चारित्र ही उनके अनुभवकी वाणी थी । उन्होंने जीवनको जैसा समझा वैसा कहा । अपने अन्तरके मैलको काटना ही यहाँ सबसे बड़ी सिद्धि है । जब मनुष्य इस भवके मैलको काट डालता है तो वह ऐसे निखर जाता है जैसे किट्ट और कलौं सके कट जानेसे घरिया में पड़ा हुआ सोना निखर जाता है ( श्लो० १३४ ) । अन्त में वे गोसाई तुलसीदासजीकी तरह पुकार उठते हैं - स्त्री जैसे पतिकी इच्छासे उसके पास जाती हैं, ऐसे ही जीवन के इन अर्थोकी सिद्धि मुझे मिले; कामिनी जैसे कामीके पास जाती है ऐसे ही अध्यात्म की स्थिति ( सुखभूमि ) मुझे सुख देनेवाली हो ।' ( श्लो० १४६ - ५० ) । मनोविज्ञानकी दृष्टिसे भी यह सत्य है कि जब तक अध्यात्मकी और मनुष्यकी उसी प्रकार सहज प्रवृत्ति नहीं होती जैसी कामसुखकी ओर, तब तक धर्म-साधना में उसकी निश्चल स्थिति नहीं हो पाती।
काशी विश्वविद्यालय
२८-२-१६५५
वासुदेवशरण अग्रवाल