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समीचीन-धर्मशास्त्र [अ० १ कोई प्रणयन नहीं बन सकता । साथ ही प्रणयनकी शक्तिसे वह सम्पन्न होता है। इन्हीं सब बातोंको लेकर पूर्वकारिका (५) में उसे 'आगमेशी' कहा गया है वही अर्थतः आगमके प्रणयनका अधिकारी होता है । ऐसी स्थितिमें यह प्रथम विशेषण ही पर्याप्त हो सकता था और इसी दृष्टिको लेकर अन्यत्र 'आगमो ह्याप्तवचनम्' जैसे वाक्योंके द्वारा आगमके स्वरूपका निर्देश किया भी गया है; तब यहाँ पाँच विशेषण और साथमें क्यों जोड़े गए हैं ? यह एक प्रश्न पैदा होता है । इसके उत्तरमें मैं इस समय केवल इतना ही कहना चाहता हूँ कि लोकमें अनेकोंने अपनेको स्वयं अथवा उनके भक्तोंने उन्हें 'श्राप्त' घोषित किया है और उनके आगमोंमें परस्पर विरोध पाया जाता है, जब कि मत्यार्थ
आप्तों अथवा निर्दोष सर्वज्ञोंके आगमोंमें विरोधके लिये कोई स्थान नहीं है, वे अन्यथावादी नहीं होते । इसके सिवा, कितने ही शास्त्र बादको सत्यार्थ आप्तोंके नाम पर रचे गये हैं और कितने ही सत्य शास्त्रोंमें बादको ज्ञाताऽज्ञातभावसे मिलावट भी हुई है । ऐसी हालतमें किस शास्त्र अथवा कथनको प्राप्नोपज्ञ समझा जाय और किसको नहीं,यह समस्या खड़ी होती है । उसी समस्याको हल करनेके लिए यहाँ उत्तरवर्ती पाँच विशेषणोंकी योजना हुई जान पड़ती है। वे प्राप्तोपज्ञकी जाँचके साधन हैं अथवा यों कहिए कि प्राप्तोपज्ञ-विषयको स्पष्ट करनेवाले हैंयह बतलाते हैं कि आप्तोपज्ञ वही होता है जो इन विशेषणोंस विशिष्ट होता है, जो शास्त्र इन विशेषणोंसे विशिष्ट नहीं हैं वे प्राप्तोपज्ञ अथवा आगम कहे जानेके योग्य नहीं हैं। उदाहरणके लिये शास्त्रका कोई कथन यदि प्रत्यक्षादिके विरुद्ध जाता है तो समझना चाहिये कि वह आप्तोपज्ञ (निर्दोष एवं सर्वज्ञदेवके द्वारा उपदिष्ट) नहीं है और इसलिये आगमके रूपमें मान्य किये जाने के योग्य नहीं।