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________________ ४२ समीचीन धर्मशास्त्र [ श्र० १ विशेषण 'उक्तदोषैर्विवर्जितस्य' भी दिया है, जिसका कारण पूर्व में उत्सन्नदोष की दृष्टि से आप्तके लक्षरणात्मक पद्यका होना कहा जा सकता है; अन्यथा यह नाममाला एक मात्र उत्सन्नदोष की दृष्टिको लिये हुए नहीं कही जा सकती; जैसा कि ऊपर दृष्टिके कुछ स्पष्टीकरणसे जाना जाता है । यहाँ 'अनादिमध्यान्तः पदमें उसकी दृष्टि के स्पष्ट होनेकी जरूरत है । सिद्धसेनाचार्यने अपनी स्वयम्भूस्तुति नामकी द्वात्रिं - शिकामें भी आप्त के लिये इस विशेषरणका प्रयोग किया है और अन्यत्र भी शुद्धात्मा के लिये इसका प्रयोग पाया जाता है । उक्त टीकाकारने 'प्रवाहापेक्षया आप्तको अनादिमध्यान्त बतलाया है; परन्तु प्रवाहकी अपेक्षासे तो और भी कितनी ही वस्तुएँ आदि मध्य तथा अन्तसे रहित हैं तब इस विशेषण से व्याप्त कैसे उपलक्षित होता है यह भले प्रकार स्पष्ट किये जानेके योग्य है । वीतराग होते हुए आप्त आगमेशी ( हितोपदेशी ) कैसे हो सकता है ? अथवा उसके हितोपदेशका क्या कोई आत्म-प्रयोजन होता है ? इसका स्पष्टीकरणअनात्मार्थं विना रागैः शास्ता शास्ति सतोहितम् । ध्वन् शिल्पि-कर- स्पर्शान्मुरजः किमपेक्षते ॥ = ॥ शास्ता - आप्त विना रागोंके - मोहके परिणामस्वरूप स्नेहादिके वावर्ती हुए विना अथवा ख्याति - लाभ - पूजादिकी इच्छाओं के विना ही- और विना आत्मप्रयोजनके भव्यजीवोंको हितकी शिक्षा देता है। इसमें आपत्ति या विप्रतिपत्तिकी कोई बात नहीं है; क्योंकि ) शिल्पीके के " को पाकर शब्द करता हुआ मृदंग क्या राग-भावोंकी तथा आत्मप्रयोजनकी कुछ अपेक्षा रखता है ? नहीं रखता ।' व्याख्या - जिस प्रकार मृदंग शिल्पीके हाथके स्पर्शरूप बाह्य निमित्तको पाकर शब्द करता है और उस शब्द के करनेमें उसका
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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