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________________ कारिका ६ ] निर्दोष प्राप्त स्वरूप ३६ यहाँ पर इतनी बात और भी जान लेनेकी है कि इन तीन गुणसे भिन्न और जो गुण आप्तके हैं वे सब स्वरूपविषयक हैंलक्षणात्मक नहीं । लक्षणका समावेश इन्हीं तीन गुणोंमें होता है । इनमें से जो एक भी गुणसे हीन है वह आप्तके रूपमें लक्षित नहीं होता । निर्दोष प्राप्त स्वरूप क्षुत्पिपासा - जरातङ्क - जन्माऽन्तक- भय-स्मयाः । न राग-द्वेष- मोहाश्च यस्याप्तः स प्रकीर्त्यते ( प्रदोषमुक् ) || ६ || ' जिसके क्षुधा, तृषा, जरा, रोग, जन्म, मरण, भय, मद, राग, द्वेष, मोह तथा ('च' शब्दसे) चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, स्वेद और खेद ये दोप नहीं होते हैं वह ( दोषमुक्त ) आप्तके रूप में प्रकीर्तित होता है । व्याख्या - यहाँ दोषरहित आप्तका अथवा उसकी निर्दोषताका स्वरूप बतलाते हुए जिन दोपों का नामोल्लेख किया गया है वे उस वर्ग हैं जो अष्टादश दोषोंका वर्ग कहलाता है और दिगस्वर मान्यता के अनुरूप है। उन दोषोंमेंसे यहाँ ग्यारहके तो स्पष्ट नाम दिये हैं, शेष सात दोषों चिन्ता, अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, स्वेद और खेदका 'च' शब्द में समुच्चय अथवा संग्रह किया गया है। इन दोषोंकी मौजूदगी ( उपस्थिति ) में कोई भी मनुष्य परमार्थ आप्तके रूपमें ख्यातिको प्राप्त नहीं होता--विशेष ख्याति अथवा प्रकीर्तनके योग्य वही होता है जो इन दोषोंसे रहित होता है । सम्भवतः इसी दृष्टिको लेकर यहाँ 'प्रकीर्त्यते' पदका प्रयोग हुआ जान पड़ता है । अन्यथा इसके स्थान पर 'प्रदोषक' पद ज्यादह अच्छा मालूम देता है । श्वेताम्बर - मान्यताके अनुसार अष्टादश दोषोंके नाम इस प्रकार हैं
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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