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कारिका ३ ]
धर्म - लक्षण
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का दूसरा नाम समन्तभद्रस्तोत्र है, और ये सब प्राय: अपने अपने आदि - अन्तके पद्योंकी दृष्टिको लिये हुए हैं। अस्तु ।
आचार्य महोदय प्रतिज्ञात धर्मके स्वरूपादिका वर्णन करते हुए लिखते हैं
धर्म - लक्षण
सद्दृष्टि - ज्ञान-वृत्तानि धर्मं धर्मेश्वरा विदुः । rata - प्रत्यनीकानि भवन्ति भव - पद्धतिः ॥ ३ ॥
* धर्मके अधिनायकोंने — धर्मानुष्ठानादि - तत्पर अथवा धर्मरूप-परिगत प्राप्त - पुरुषोंने — सद्द्दष्टि सम्यग्दर्शन, सत्ज्ञान - सम्यग्ज्ञान - और सद्वृत्त -- सम्यक्चारित्र को 'धर्म' कहा है । इनके प्रतिकूल जो असद्द्दष्टि, असत्ज्ञान, असद्वृत्त - मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान, मिथ्याचारित्र हैं वे सब भवपद्धति हैं— संसारके मार्ग हैं।'
व्याख्या - मूल में प्रयुक्त 'सत्' शब्दका सम्बन्ध दृष्टि, ज्ञान, वृत्त तीनोंके साथ है और उसका प्रयोग सम्यक्, शुद्ध, समीचीन तथा वीतकलंक ( निर्दोष ) जैसे अर्थ में हुआ है; जैसा कि श्रद्धानं परमार्थानां, भयाशास्नेहलोभाच्च, प्रथमानुयोगमर्था, येन स्वयं वीतकलङ्कविद्या' इत्यादि कारिकाओं ( ४, ३०, ४३, १४६ ) से प्रकट है । 'हिंसाऽनृत चौयेभ्यो' इस कारिकामें प्रयुक्त 'संज्ञस्य' पदका 'सं' भी इसी अर्थको लिये हुए है और इसीके लिये स्वयम्भूस्तोत्र में 'समज' जैसे शब्दका प्रयोग किया गया है।
'दृष्टि' को दर्शन तथा श्रद्धान; 'ज्ञान' को बोध तथा विद्या और 'वृत्त' को चारित्र, चरण तथा क्रिया नामोंसे भी इसी ग्रन्थमें उल्लेखित किया गया है ।। इसी तरह 'सहष्टि'को सम्यग्दर्शन
* " समञ्जस - ज्ञान - विभूति चक्षुषा" का० १ ।
+ देखो, कारिका नं० ४, २१, ३१ आदि; ३२, ४३, ४६ आदि; ४६ ५०, १४ आदि ।