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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ उन्होंने 'आगसां जये' जैसे पदोंके द्वारा अपनी स्तुतिविद्याका लक्ष्य 'पापोंको जीतना' बतलाया हैx । और इसलिये ऐसे स्तवनादिकोंसे उन्हें जो आत्मसन्तोप होता था उसे वे दूसरोंको भी कराना चाहते थे और आत्मोत्कर्षकी साधनाका जो भाव उनके हृदयम जागृत होता था उसे वे दूसरोंके हृदयमें भी जगाना चाहते थे। एमी ही शुभ भावनाको लेकर उन्होंने प्रन्थकी आदि में किये हुए अपने मङ्गलाचरणको ग्रन्थमें निबद्ध किया है, और उसके द्वारा पढ़ने-सुननेवालोंकी श्रेय-साधनामें सहायक होते हुए उन्हें अपनी तात्कालिक मनःपरिणतिको समझनेका अवसर भी दिया है। निःसन्देह, इस सुपरीक्षित और सुनिीत गुणोंके स्मरणको लिये हुए मङ्गलपद्यको शास्त्रकी आदिमें रखकर स्वामी समन्तभद्रने भगवान् वर्द्धमानके प्रति अपनी श्रद्धा, भक्ति, गुणज्ञता और गुण-प्रीतिका बड़ा ही सुन्दर प्रदर्शन किया है। और इस तरहसे वर्तमान धर्मतीर्थके प्रवर्तक श्रीवीर-भगवानको तद्पमें-आप्तके उक्त तीनों गुणोंसे विशिष्ट रूपमें देखने तथा समझनेकी दूसरोंको प्रेरणा भी की है। इस शिष्ट-पुरुषानुमोदित और कृतज्ञ-जनताभिनन्दित स्वष्टफलप्रद मङ्गलाचरणके अनन्तर अब स्वामी समन्तभद्र अपने अभिमत शास्त्रका प्रारम्भ करते हुए उसके प्रतिपाद्य विषयकी प्रतिज्ञा करते हैं: धर्मदेशनाकी प्रतिज्ञा और धर्मके विशेषरण देशयामि समीचीनं धर्म कर्मनिवर्हणम् । संसारदुःखतः सत्वान् यो धरत्युत्तमे सुखे ॥२॥ X देखो, स्तुतिविद्या (जिनशतक), पद्य नं० १
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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