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________________ समीचीन-धर्मशास्त्र [अ०१ 'कलिल' शब्द कल्मष, पाप और दुरित जैसे शब्दोंके साथ एकार्थता रखता है । इन शब्दोंको जिस अर्थमें स्वयं स्वामी समन्तभद्रने अपने ग्रन्थों में प्रयुक्त किया है प्रायः उस सभी अर्थको लिये हुए यहाँ 'कलिल' शब्द का प्रयोग है। उदाहरणके तौरपर स्वयम्भूस्तोत्रके पार्श्वजिनस्तवनमें 'विधूतकल्मषं' पदके द्वारा पार्श्वजिनेन्द्रको जिस प्रकार घातिकर्मकलङ्कस-ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोहनीय और अन्तराय नामक चार घातियाकर्मोसे--- रहित सूचित किया है उसी प्रकार यहाँ 'निर्धतकलिलात्मने' पदके द्वारा वर्द्धमान जिनेन्द्रको भी उसी घातिकर्मकलङ्कसे रहित व्यक्त किया है । दोनों पद एक ही अर्थके वाचक हैं ।। 'लोक' उसे कहते हैं जो अनन्त आकाशके बहुमध्यभागमें स्थित और प्रान्तमें तीन महावातवलयास वेष्ठित जीवादि पद द्रव्योंका समूह है, अथवा जहाँ जीव-पुद्गलादि छह प्रकारके द्रव्य* अवलोकन किये जायँ देखे-पाय जायँ-वह सब लोक है उसके तीन विभाग हैं-ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक और अधोलोक । सुदर्शन-मेरुके मृलभागसे नीचेका इधर-उधरका सब प्रदेश अर्थात् रत्नप्रभा भूमिसे लेकर नीचेका अन्तिम वातवलय तककासब भाग, जिसमें व्यन्तरों तथा भवनवासी देवोंके आवास और । श्रीकुन्दकुन्दाचार्य-द्वारा प्रवचनसारकी आदिमें दिया हुअा वर्द्धमानका 'धोदयाइकम्ममलं' विशेपण भी इसी आशयका द्योतक है । * जैन विज्ञानके अनुसार जीव, पुद्गल, धर्म, अवर्म, काल और आकाश ये छह द्रव्य हैं। इनके अलावा दूसरा कोई द्रव्य नहीं है। दूसरे जिन द्रव्योंकी लोकमें कल्पना की जाती है उन सबका समावेश इन्हींमें हो जाता है । ये नित्य और अवस्थित हैं-अपनी छहकी संख्याका कभी उल्लङ्घन नहीं करते । इनमेंसे पुद्गलको छोड़कर शेष सब द्रव्य अरूपी हैं। और इनकी चर्चासे प्रायः सभी जैन-सिद्धान्त-ग्रन्थ भरे पड़े हैं।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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