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________________ प्रस्तावना ११३ निबन्धसे जानना चाहिये जो 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहासमें ४२ पृष्ठों पर इन पंक्तियोंके लेखक-द्वारा लिखा गया है। समन्तभद्रकी सफलताका दूसरा समुच्चय उल्लेख बेलूर तालुकेके कनड़ी शिलालेख नं० १७ (E. C. V ) में पाया जाता है, जो रामानुजाचार्य-मन्दिरके अहातेके अन्दर सौम्यनायकी मन्दिरकी छतके एक पत्थरपर उत्कीर्ण है और जिसमें उसके उत्कीर्ण होनेका समय शक संवत् १०५६ दिया है । इस शिलालेखमें ऐसा उल्लेख पाया जाता है कि श्रुतकेवलियों तथा और भी कुछ आचार्योंके बाद समन्तभद्र स्वामी श्रीवर्द्धमान महावीरस्वामीके तीर्थकीजैनमार्गकी-सहस्रगुणी वृद्धि करते हुए उदयको प्राप्त हुए हैं"श्रीवर्द्धमानस्वामिगलु तीर्थदोलु केवलिगलु ऋद्धिप्राप्तरु श्रुतकेवलिंगलुपलर सिद्धसाध्यर् तत् ( तीर्थ्यमं सहस्रगुणं माडि समन्तभद्रस्वामिगलु सन्दर।" वीरजिनेन्द्रके तीर्थकी अपने कलियुगी समयमें हजारगुणी वृद्धि करने में समर्थ होना यह कोई साधारण बात नहीं है । इससे समन्तभद्रकी असाधारण सफलता और उसके लिये उनकी अद्वितीय योग्यता, भारी विद्वत्ता एवं बेजोड़ क्षमताका पता चलता है। साथ ही, उनका महान व्यक्तित्व मूर्तिमान होकर सामने आजाता है। यही वजह है कि अकलंकदेव-जैसे महान् प्रभावक आचार्यने, अपनी 'अष्टशती' में, 'तीर्थ प्रभावि काले कलौ' जैसे शब्दों-द्वारा, कलिकालमें समन्तभद्रकी इस तीर्थ-प्रभावनाका उल्लेख बड़े गौरवके साथ किया है। यही कारण है कि हरिवंशपुराणकार श्रीजिननेनाचार्य समन्तभद्रके वचनोंको वीरभगवानके वचनोंके समान प्रकाशमान ( प्रभावादिसे युक्त) बतला रहे हैं।। + वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विजृम्भते ।'--हरिवंशपुराण
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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