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________________ प्रस्तावना १११ को, निष्पक्षदृष्टिसे, स्व-पर-सिद्धान्तोंपर खुला विचार करनेका पूरा अवसर देते थे । उनकी सदैव यह घोपणा रहती थी कि किसी भी वस्तुको एक ही पहलूसे-एक ही ओरसे—मत देखो, उसे सब ओरसे और सब पहलुओंसे देखना चाहिये, तभी उसका यथार्थज्ञान हो सकेगा। प्रत्येक वस्तुमें अनेक धर्म अथवा अङ्ग होते हैं-इसीसे वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसके किसी एक धर्म या अङ्गको लेकर सर्वथा उसी रूपसे वस्तुका प्रतिपादन करना 'एकान्त' है और यह एकान्तवाद मिथ्या है, कदाग्रह है, तत्त्वज्ञानका विरोधी है, अधर्म है और अन्याय है । स्याद्वादन्याय इसी एकान्तवादका निपेध करता है-सर्वथा सत्-असत्-एक अनेक-नित्य-अनित्यादि सम्पूर्ण एकान्तोंसे विपक्षीभूत अनेकान्ततत्त्व ही उसका विपय है। ___अपनी घोषणाके अनुसार, समन्तभद्र प्रत्येक विपयके गुण दोषोंको स्याद्वाद-न्यायकी कसौटी पर कसकर विद्वानोंके सामने रखते थे, वे उन्हें बतलाते थे कि एक ही वस्तुतत्त्वमें अमुक अमुक एकान्तपक्षोंके माननेसे क्या क्या अनिवार्य दोप आते हैं और वे दोप स्याद्वाद न्यायको स्वीकार करनेपर अथवा अनेकान्तवादके प्रभावसे किस प्रकार दूर हो जाते हैं और किस तरहपर वस्तुतत्त्वका सामंजस्य ठीक बैठ जाता है। उनके समझाने में दूसरोंके प्रति तिरस्कार का कोई भाव नहीं होता था। वे एक मार्ग भूले हुए को मार्ग दिखानेकी तरह प्रेमके साथ उन्हें उनकी त्रुटियोंका बोध कराते थे, और इससे उनके भापणादिकका दृसरों पर अच्छा ही ___* सर्वथासदसदेकानेक-नित्यानित्यादि-सकलैकान्त-प्रत्यनीकाऽनेकान्ततत्त्व-विषयः स्याद्वादः । ___-देवागमवृत्तिः + इस विषयका अच्छा अनुभव प्राप्त करनेके लिये समन्तभद्रका 'देवागम' ग्रन्थ देखना चाहिये, जिसे 'आत्ममीमांसा' भी कहते हैं ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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