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________________ १०४ समीचीन-धर्मशास्त्र तत्त्व लोकमें दुर्बोध हो रहा है-ठीक समझमें नहीं आता-वह हितकारी वस्तु-प्रयोजनभूत जीवादि-पदार्थमाला-श्रीसमन्तभद्रके वचनरूप देदीप्यमान रत्नदीपकोंके द्वारा हमें सब ओरसे चिरकाल तक स्पष्ट प्रतिभासित होवे-अर्थात् स्वामी समन्तभद्रका प्रवचन उस महाजाज्वल्यमान रत्नसमूहके समान है जिसका प्रकाश अप्रतिहत होता है और जो संसारमें फैले हुए निरपेक्षनयरूपी महामिथ्यान्धकारको दूर करके वस्तुतत्त्वको स्पष्ट करने में समर्थ है, उसे प्राप्त करके हम अपना अज्ञान दूर करें ।' विस्तीर्ण-दुर्नयमय-प्रबलान्धकारदुर्बोधतत्त्वमिह वस्तु हितावबद्धम् । व्यक्तीकृतं भवतु नस्सुचिरं समन्तात् सामन्तभद्र-वचन-स्फुट-रत्नदीपैः॥ (ख) श्रीवीरनन्दी प्राचार्यने, चन्द्रप्रभचरित्रमें, लिखा है कि 'गुणोंसे--सूतके धागोंसे-गूंथी हुई निर्मल गोल मातियोंसे युक्त और उत्तम पुरुषोंके कण्ठका विभूपण बनी हुई हारयष्टिकाश्रेष्ठ मोतियोंकी मालाका-प्राप्त कर लेना उतना कठिन नहीं है जितना कठिन कि समन्तभद्रकी भारती (वाणी ) को पा लेनाउसे खूब समझकर हृदयङ्गम कर लेना है, जो कि सद्गुणोंको लिये हुए है, निर्मल वृत्त ( वृत्तान्त, चरित्र, आचार, विधान तथा छन्द ) रूपी मुक्ताफलोंसे युक्त हैं और बड़े-बड़े आचार्यों तथा विद्वानोंने जिसे अपने कण्टका आभूषण बनाया है-वे नित्य ही उसका उच्चारण तथा पाठ करने में अपना गौरव मानते और अहोभाग्य समझते रहे हैं । अर्थात् समन्तभद्रकी वाणी परम दुर्लभ है-उनके सातिशय वचनोंका लाभ बड़े ही भाग्य तथा परिश्रमसे होता है।'
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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