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________________ प्रस्तावना १२ . की गई है, जिसका एक उदाहरण 'चारित्रसार' ग्रन्थका यह वाक्य है-"उक्त रुपासकारणान्तिकी सल्लेखना प्रीत्या सेव्या ।" और यह है भी ठीक, सल्लेखनाका सेवन मरणके संनिकट होने पर ही किया जाता है और बाकीके धर्मोका-व्रत-नियमादिकोंकाअनुष्ठान तो प्रायः जीवनभर हुआ करता है। इसलिये ये ग्यारह प्रतिमाएँ केवल सल्लेखनानुष्ठाता श्रावकके भेद नहीं हैं बल्कि श्रावकाचार-विधिक विभेद हैं--श्रावकधर्मका अनुष्ठान करनेवालोंकी खास श्रेणियाँ हैं और इनमें प्रायः सभी श्रावकोंका समावेश हो जाता है । मेरी रायमें टीकाकारको 'सल्लेखनानुष्ठाता' के स्थान पर 'सद्धर्मानुष्ठाता पद देना चाहिये था। ऐसा होने पर मूलग्रन्थके साथ भी टीकाकी संगति ठीक बैठ जाती; क्योंकि मूलमें इससे पहले उस सद्धर्म अथवा समीचीन धर्मके फलका कीर्तन किया गया है जिसके कथनकी आचार्यमहोदयने ग्रन्थके शुरू में प्रतिज्ञा की थी और पूर्व पद्यमें 'फलति सद्धर्मः' ये शब्द भी स्पष्टरूपसे दिये हुए हैं-उसी सद्धर्मके अनुष्ठाताको अगले पद्यों-द्वारा ग्यारह श्रेणियोंमें विभाजित किया है। परन्तु जान पड़ता है टीकाकारको ऐसा करना इष्ट नहीं था और शायद यही वजह हो जो उसने सल्लेखना और प्रतिमाओं दोनोंके अधिकारोंको एक ही परिच्छेदमें शामिल किया है। परन्तु कुछ भी हो, यह तीसरी विशेषता भी आपत्ति के योग्य ज़रूर है ।। * श्रीअमितगति प्राचार्य के निम्नवाक्यसे भी ऐसा ही पाया जाता है एकादशोक्ता विदितार्थतत्त्वरुपासकाचारविविभेदाः । पवित्रमारोढुमनस्यलभ्यं सोपानमार्गा इव सिद्धि सौधम् ।। -उपासकाचार। । यहाँ तक यह प्रस्तावना उस प्रस्तावनाका संशोषित, परिवर्तित और परिवद्धित रूप है जो मारिणकचन्द-ग्रन्थमालामें प्रकाशित रत्नकरण्डश्रावकाचार (सटीक)के लिये १७ फर्वरी सन् १९२५ को लिखी गई थी।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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