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________________ प्रस्तावना ११ चाहिये थे। गुणवतोंके अधिकारको तो 'एवं पंचप्रकारमणुव्रतं प्रतिपाद्येदानी त्रिःप्रकारं गुणवतं प्रतिपादयन्नाह' इस वाक्यके साथ अणुव्रत-परिच्छेदमें शामिल कर देना परन्तु शिक्षाव्रतोंके कथनको शामिल न करना क्या अर्थ रखता है, यह कुछ समझमें नहीं आता । इसीसे टीकाकी यह विशेषता मुझे आपचिके योग्य जान पड़ती है। दूसरी विशेषता यह कि, इसमें दृष्टान्तोंवाले छहों पद्योंको उदाइन किया है-अर्थात , उनकी तेईस कथाएँ दी हैं। ये कथाएँ कितनी साधारग, श्रीहीन, निष्प्राण तथा आपत्तिके योग्य हैं और उनमें क्या कुछ त्रुटियाँ पाई जाती हैं, इस विपयकी कुछ सूचनाएँ पिछले पृष्टोंमें, 'संदिग्धपद्य' शीर्पकके नीचे सातवीं आपत्तिका विचार करते हुए, दी जा चुकी हैं। वास्तवमें इन कथाांकी त्रुटियोंको प्रदर्शित करने के लिये एक अच्छा खासा निबन्ध लिखा जा सकता है, जिसकी यहाँ पर उपेक्षा की जाती है। तीसरी विशेषता यह है कि, इस टीकामें श्रावकके ग्यारह पदों को-प्रतिमाओं, श्रेणियों अथवा गुणस्थानोंको-सल्लेखनानुष्ठाता (समाधिमरण करनेवाले ) श्रावकके ग्यारह भेद बतलाया है-अर्थात् . यह प्रतिपादन किया है कि जो श्रावक समाधिमरण करते हैं-सल्लेखनाव्रतका अनुष्ठान करते हैं-उन्हींके ये ग्यारह भेद हैं। यथा करण्डश्रावकाचार, जिसे निर्णयसागरप्रेस बम्बईने सन् १९०५ में प्रकाशित किया था । जैनग्रन्थरत्नाकर-कार्यालय बम्बई आदि द्वारा प्रकाशित और भी बहुत संस्करणोंमें तथा पुरानी हस्तलिखित प्रतियोंमें वे ही सात अध्ययन या परिच्छेद पाये जाते हैं ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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