SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ समीचीन धर्मशास्त्र पद्य स्वीकारने में कोई युक्तियुक्त कारण प्रायः मालूम नहीं देता । वे खुशीसे उस कसौटी ( कारणकलाप ) के दूसरे तीसरे और पाँचवें भागों में आ जाते हैं जो क्षेपकोंकी जाँच के लिये इस प्रकरण के शुरू में दी गई है । परन्तु इन पद्योंके क्षेपक होनेकी हालत में यह ज़रूर मानना पड़ेगा कि उन्हें ग्रन्थ में प्रक्षिप्त हुए बहुत समय बीत चुका है - वे प्रभाचन्द्रकी टीकासे पहले ही प्रन्थ में प्रविष्ट हो चुके हैं और इसलिये ग्रन्थकी ऐसी प्राचीन तथा असंदिग्ध प्रतियोंको खोज निकालनेकी खास जरूरत है जो इस टीकासे पहले की या कमसे कम विक्रमी १२वीं शताब्दी से पहले की लिखी हुई हों अथवा जो खास तौरपर प्रकृत विषयपर अच्छा प्रकाश डालने के लिये समर्थ हो सकें। साथ ही, इस बातकी भी तलाश होनी चाहिये कि १२ वीं शताब्दी से पहले के बने हुए कौनकौनसे ग्रन्थोंमें किस रूपसे ये पद्य पाये जाते हैं और उक्त संस्कृत टीकासे पहलेकी बनी हुई कोई दूसरी टीका भी इस ग्रन्थपर उपलब्ध होती है या नहीं | ऐसा होनेपर ये पद्य तथा दूसरे पद्य भी और ज्यादा रोशनी में आ जाएँगे और मामला बहुत कुछ स्पष्ट तथा साफ़ हो जायगा । ८५ 1 ( ४ ) अधिक पद्योंवाली प्रतियोंमें जो पद्य अधिक पाये जाते हैं वे सब क्षेपक हैं। उन पर क्षेपकत्वके प्रायः सभी लक्षण चरितार्थ होते हैं और ग्रन्थ में उनकी स्थिति बहुत ही आपत्तिके योग्य पाई जाती है । वे बहुत साफ तौर पर दूसरे ग्रन्थोंसे टीकाटिप्पणीके तौरपर उद्धृत किये हुए और बादको लेखकोंकी कृपासे ग्रन्थका अंग बना दिये गये मालूम होते हैं । ऐसे पद्योंको ग्रन्थका अङ्ग मानना उसे बेढंगा और बेडौल बना देना है। इस प्रकारकी प्रतियाँ पद्योंकी एक संख्याको लिये हुए नहीं हैं और यह tara उनके क्षेपकत्वको और भी ज्यादा पुष्ट करती है ।
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy