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________________ प्रस्तावना ८१ ही श्लोक मूलरूपसे पाये जाते हैं। इसी तरह दोनों टीकाओं में जिन पद्योंको 'उक्तं च' आदि रूपसे दूसरे ग्रन्थोंसे उद्धृत करके टीकाका एक अंग बनाया गया था उन्हें उक्त मूल प्रतियों अथवा उनसे पहली प्रतियोंके लेखकोंने मूलका ही अंग बना डाला है। यद्यपि, इस परिचयसे किसीको यह बतलानेकी ऐसी कुछ जरूरत नहीं रहती कि पहली मूल प्रतिमें जो ४० पद्य बढ़े हुए हैं और दूसरी मूलप्रतिमें जिन १७ पद्योंको मूलका अंग बनाया गया है वे सब मूलग्रन्थके पद्य नहीं है, बल्कि टीका-टिप्पणियोंके ही अंग हैं-विज्ञ पाठक ग्रन्थमें उनकी स्थिति, पूर्वापर पद्योंके साथ उनके सम्बन्ध, टीकाटिप्पणियोंमें उनकी उपलब्धि, ग्रन्थके साहित्यसंदभ, ग्रन्थकी प्रतिपादन-शैली, समन्तभद्रके मूल ग्रन्थोंकी प्रकृति और दूसरे ग्रन्थोंके पद्यादि-विषयक अपने अनुभवपरसे सहज ही में इस नतीजेको पहुँच सकते हैं कि वे सब दूसरे ग्रन्थों के पदा हैं और इन प्रतियों तथा इन्हीं जैसी दूसरी प्रतियों में किसी तरह पर प्रक्षिप्त हो गये हैं-फिर भी साधारण पाठकोंके संतापके लिये, यहाँ पर कुछ पद्योंके सम्बन्धमें, नमूनेके तौरपर,यह प्रकट कर देना अनुचित न होगा कि वे कौनसे ग्रन्थाक पद्य हैं और इस ग्रन्थमें उनकी क्या स्थिति है । अतः नीचे उसीका यत्किंचित् प्रदर्शन किया जाता है :- (क) 'सूर्यायो ग्रहणस्नामं,' 'गोपृष्ठान्तनमस्कारः' नामके ये दो पद्य, यशस्तिलक ग्रन्यके छठे आश्वासके पद्य हैं और उसके चतुर्थकल्पमें पाये जाते हैं। दूसरी मूल प्रतिमें, यद्यपि, इन्हें टिप्पणीके तौर पर नीचे दिया है तो भी पहली मूलप्रतिमें 'आपगासागरस्नानं' नामके पद्यसे पहले देकर यह सूचित किया है कि ये लोकमूढताके द्योतक पद्य हैं और, इस तरह पर, ग्रन्थकर्ताने लोकमूढताके तीन पद्य दिये हैं। परन्तु ऐसा नहीं है । ग्रन्थकार महोदयने शेष दो मूढताओंकी तरह 'लोकमूढता' का भी वर्णन
SR No.010668
Book TitleSamichin Dharmshastra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1955
Total Pages337
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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