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________________ प्रार्यमतलीला ॥ (६५) रण सूर्य को महान योद्धा और सा- | मैं वैसे शत्रुओं को मासं उनको इधर इसी माना है वेदों के गीतों में वेदों उधर फेंक और उन को तथा किला के कवियों ने योद्वानों और वीर प- प्रादि स्थानों से युद्ध करने के लिये रुषों की प्रशंसा करते समय वा उन | आई मेनाओं को छिन्न भित्र करूं। को युद्ध की उत्तेजना करते ममय यह दुष्ट अभिमानी युद्ध की इच्छा न क. ही दृष्टान्त दिया है कि जिस प्रकार | रने वाले पुरुष के ममान पदार्थों के सर्य मेघों को मारता है इस प्रकार रसको इकट्ठे करने और बहुत शत्रुओं सम शत्रों को मारो हमारे अनमान को मारने हारे के तुल्य अत्यन्त बल | में तो वेदों में एक हजार बार वा कम युक्त शूरबीर के ममान सूर्य स्नोक को | से भी अधिक बार यह ही दृष्टान्त दि- ईर्ष्या मे पुकारते हुए के सदृश बर्तता या गया है बरण ऐमा मालम होता है जब उमको रोते हुए के मदृण सूर्य है कि वेद बनाने बोल्ने कधियों के पास | | ने मारा तब वह मारा हुवा सूर्यका इस दृष्टान्त के सिवाय कोई और तु- गत्र मेघ सूर्य से पिस जाता है और ष्टान्त ही नहीं था-इस प्रकार वेदों में वह इस सूर्य की ताड़नाओं के ममूह हज़ारों बार कहे हुवे एक दृष्टान्त के | को सह नहीं मक्ता और निश्चय है कि हम पांच सात वाक्य नमूने के तौर | इस मेघ के शरीर से उत्पन्न हुई न. पर लिखते हैं दियां पर्वत और पृथिवी के बड़े बड़े ऋग्वेद छठा मंडल सूक्त १७ ऋचा १ / टीलों को छिन्न भिन्न करती हुई वह हे शस्त्र है हस्त में जिनके ऐसे-ती हैं बैंसे ही सेनाओं में प्रकाशमान मेघों को सूर्य जैसे वैसे सम्पूर्ण सेनाध्यक्ष शत्रओं में चेष्टा किया करें। शवों को प्राप विशेष करके नाश जल को मेघ रोके हुये होते हैं ढके रखते हैं सर्य मेघ को तोडकर ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक ३२ ऋ०१-६-११ | जल घरसाता है। हे विद्वान् मनुष्यों तुम लोग जसे | ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ६२ ऋचा ४ सूर्य के जिन प्रसिद्ध पराक्रमोंको कही जैसे सूर्य्य मेघ को हनन करता है उनको मैं भी शीघ्र कहूं जैसे वह सब | वैसे शवों को विदारण करते हो । पदार्थों के छेदन करनेवाले फिरणोंसे | | ऋग्वेद प्रथम मंडल सूक्त ८० ऋचा १३ युक्त सूर्य मेघ को हनन करके बर्षाता सूरज मेघ को जिस प्रकार हनन कउस मेघ के अवयव रूप जलों को नीचे | रता है इस प्रकार शत्रु को मारनेवाले अपर करता उसको पथिवी पर गि- मभापति । राता और सन मेघों के सकाश से न- ऋग्वेद प्रथम मंडल सक्त १२१ की ऋ० दिपों को छिन्न भिन करके बहाता है | ११ का प्राशय करिये।
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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