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________________ (३८) मार्यमतलीला ॥ - को ही भाषा हो सकती है कि कोई । सब भाषामों का कारण भी है। और भाषा । परन्तु घेदों की भाषाको बाह ! स्वामी दयामननी ! धन्य है तो विद्वान् ऋषियों ने नापसन्द किया | भापको ! क्या आपका यह नाशप है। और जन को शुद्ध करके संस्कृत बनाई कि जिस समय ईश्वरने वेदों को प्रका। तत्रयों ईशवर ने सष्टिको मादि में |श किया उस समय पृथिवीके सब देऐसी भाषा दी जिसको शुद्ध करना प-शो में इस ही प्रकार मित्र भित्र भाषा हा। इससे स्पष्ट सिद्ध होगया है कि वे थी जिस प्रकार इस समय अनेक प्रकादोंको भाषा ईश्वर की भाषा नहीं है। रक्षी भाषामें प्रचलित हो रही हैं। यघरण ग्रामीण करियों ने अपनी गंधार द्यपि इस स्थानपर भाप ऐसा ही प्रभाषामें कबिता की है जिसका संग्रह गट करना चाहते हैं परन्तु दूसरे स्थान होकर वेद बन गये हैं। | पर माप तो वेदों का प्रकाश होना उम वेद की भापाके विषम में स्वामीजीने | समय सिद्ध करते हैं जब कि सष्टिकी एक अद्भत प्रपंच रचा है वह सत्या- आदि में ईश्वरने तिव्वत देशमें मनु प्रकाशके सप्तम ममुखानासमें लिखते हैं। प्यों को बिना मा धाप के पैदा किया __ " ( प्रश्न ) किसी देश भाषामें वेदों था और जब कि पृथिवी में सभ्य किसी का प्रकाश न कर के संस्कृतमें क्यों किया स्थान पर कोई ममष्य नहीं रहता था " ( उत्तर ) जो किसी देश भाषामें | और जो मनुष्य तिव्बतमें उत्पन्न किये प्रकाश करता तो ईश्वर पक्षपाती हो । गय थे सनकी भी कोई भाषा नहीं थी! जाता क्योंकि जिस देशकी भाषा प्र- मालूम पड़ता है कि स्वामीजीको सकाश करता उनको सुममता और वि- त्यार्थप्रकाश में यह लेख लिखते समय देशियोंको टिनता वेदोंके पढ़ने प-सस ममयका ध्यान नहीं रहा जब सढ़ाने की होती इसलिय संस्कृत ही में टिकी मादि में ईश्वर को वेदों का प्रप्रकाश किया जो किमी देशी भाषा काश करने वाला बताया जाता है. नहीं और घेदभाषा अम्य मम भाषा-रगा स्वामीजीको अपमे ममयका ध्यान जोका कारण है उसी में वेदोंका प्रकाश रहा और यह ही समझा कि हम ही किया । जैसे ईश्वर की पृथिवी नादि इस समय वेदों को प्रकाश करते हैं - सष्टि सय देश और देशवालो के लिये | र्यात् बनाते हैं क्योंकि स्वामी जीके एकसी और सब शिल्पविद्याका कारण | ममबमें बेशक पृथिवीके प्रत्येक देशको है वैसे परमेश्वरको विद्याकी भाषा भी पृथक २ भाषा है और संस्कृत भाषा एक सी होनी चाहिये कि सब देश- जिसमें वेदों का प्रकाश स्वामी जी ने बालों को पढ़ने पढ़ानेमें तुल्य परिश्रम किया स्वामीजीके समय में किसी देश होनेमे ईश्वर पक्षपाती नहीं होता और की प्रचलित भाषा भी नहीं थी । इस
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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