SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 22
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ (१८) पार्यमतलीला ॥ जाता है इस कारण देशकी ही बस्तु | ऐमा न करके और शेखों में आकर अ. लेनी चाहिये चाहे वह अधिक मूल्य पने चेलोंको बहकानेके वास्ते इस बात को मिले और विदेशी के मुकाबले में के निद्ध करने की कोशिश की कि उस सादर भी न हो । यही दशा वेदों मगध में रेल भी चलती थी और समुके गीतोंकी है। हमको कार्य है कि में जहाज भी जारी थे जिनमें ऐंजिन इस प्रकार के पुम्न सकी बाबत खामी | जड़ते थे और भागके जोरसे विमान जीने किस प्रकार लिया दिया कि वह भी आकाशमें उछते थे । वाह स्वामी ईश्वर थाक्य है और मनष्यों को भी जो बाह ! श्रापको शाबाश है आप ज्ञान प्राप्त हुआ है वह इन ही के ! क्या भिद्ध करना चाहते ध और उस द्वारा हुआ है ? क्या स्वामीजी यह को भिद्धि में कह गये यह बात जो अजानते थे कि कोई इनको पढ़कर नहीं। पनी ही बातको खण्डन करेंदेखगा और दूरको ही प्रशंसासे श्रद्धा- इस लेख में द ग यह मिद्ध करना नहीं न ले आयेगा। चाहते हैं कि स्वामीजनिकिमी प्रकार परन्तु हमारा प्रापर्य दूर हो जाता घेदोंका अर्थ बदल कर उममें रेन मेंहै जब हम देखते हैं कि स्वामी जी जिन जहाज और बिमान आदि का सारी ही बातें उन्नाटी पुलटी और ब. | वर्णन दिखाया है क्योंकि हमको तो सिर पैरकी करते हैं । देखिये स्वामी इस सारे लेखमें यही मिद्ध करना लीको यह मिद्ध करना था कि सष्टि | है कि स्वामीजी के प्रों के मनमार भी की आदि में ईश्वरने उन मनुष्यों को | वेदोसे शिक्षा मिलती है और वेद दोंके द्वारा ज्ञान दिया जो बिना मा ईश्वरका वाक्य मिद्ध होते हैं या नहीं बापके सत्पन्न किये गये थे। श्राज कन्न | मीर बस मस्टिकी श्रादिमें दिये गये जो बामक पैदा होता है वह पैदा होने वा नहीं ? हम जो कुछ लेख लिखरहे पर मकान-दुकान बाजार-खाट पीढ़ा हैं वह स्वामीजी के प्रोंको मत्य मान बरतन-मन्त्र और अनेक बस्तु और मल कर ही लिख रहे हैं और स्वामी जी के नप्यों के अनेक प्रकार के काम देयता है। प्रोंके अननार मर्ब बातें मिल करगेपरन्तु यह मनध्य जो विना मा बाप iऋग्वंदा प्रथग माउनको पक्त ४६ की के पैदा हुए होंगे वह तो विल्कल क्रमशः ऋचा ३---८ के अर्थ में इस ऐसी ही दशामें होंगे जमा कि जंगल प्रकार लिखा हैमें पशु, इस कारण स्वामी जी को घा- "हे कारीगरी जो वृद्धावस्यामें वर्तमान दिये था कि एमे मनप्य को जिन जिन | घले विद्वान् तुम शिरूप विद्या पढ़ने वातोंकी शिक्षा की जरूरत होती है वह | पढान वालोंको विद्याप्रोंका उपदेश पाते वदोंमें दिख नाते परन्तु उन्होंने करो तो प्राप लोगोंका बनाया हुआ
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy