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________________ ॥निवेदन ॥ भार्यसमाज नामक संस्थाके चतुर संस्थापक स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीने अ. पने लेख और सिद्धान्तोंमें यथा शक्ति यह सिद्ध करनेकी चेष्टाकी है कि वेद ( ऋग, यजु, साम और अथर्व नामंक चारोसंहिता) ईश्वर प्रणीत है, वह सर्व कल्याणकारी विद्याओंके उत्पादक स्थान हैं तथा उन्हीके उपदेशानुकूल चलनेसे मनुष्यका यथार्थ कल्याण होसक्ता है और अब भी स्वामी जीके अनुयायी हमारे आर्यसमाजी भाई अपने प्रयास भर वैसा प्रतिपादन करनेकी चेष्टा कर रहे हैं । उपरोक्त वेदोंके बर्तमान में सायण, महीधर और मोक्षमूलर ( Maxmuller ) आदि कृत अनेक भाष्य पाये जाते हैं और वह इतने विशद है कि अनेक परस्पर विरुख संप्रदायो | यहांतक कि थाममार्गादि ने भी अपना सिद्धान्त पोषक स्थान वेदको ही माना है परन्तु हमारे स्वामीजीने यह कहकर उन सर्व प्राचीन भायोंको अमान्य करदिया है कि घे मुष्टिक्रम विरुख, हिन्सा और व्यभिचारादि घृणित कार्योंसे परिपूर्ण हैं और उनके पढने से वे सर्व ईश्वर प्रणीत होना तो एक ओर किसी बुद्धिमान भी मनुष्य कृत प्रमाणित नहीं होसक्ते और इसी अर्थ अपने मन्तव्यो को पोषण करने के अर्थ स्वामीजीने उनपर अपनाएकखतन्त्र नवीन भाष्य रचा है। यद्यपि यह विषय विवाद प्रस्त है कि स्वामीजीका वेद भाप्य ही क्यो प्रामाणिक है परन्तु इसपर कुछ ध्यान न देते हुय जैनगजट के भूतपूर्व सुयोग्य सम्पादक सिरसावा निवासी श्रीयुत पावू जुगलकिशोर जी मुख्तार देवबन्दने अपने सम्पादकत्व कालमें सन् १९०८ १० के जैनगजट के २८ अंकों में यह "आर्यमत लीला" नामक विस्तृत और गवेषण पूर्ण लेखमाला निकालकर समाजका बहा उपकार किया है । बाबू साहबने अपनी सुपाच्य और मनोरंजक सरल भाषामे स्वामी दयानन्द सरस्वतीजीके भाप्यानुसार ही आर्यसमाजके माने हुये प्रामाणिक वेद व अन्य सिद्धान्तोकी जो ययार्थ समालोचना कर सर्व साधारण विशेषकर हमारे उदार हृदय, समाज सुधारक ( Social Reformer) सांसारिक उन्नतिकी उत्कट आकांक्षा रखनेवाले, उन्नतिशील और सधर्मके अन्वेषी आर्यसमाजी भाइयोंका भ्रमान्धकार दूर करनका जो श्लाघनीय परिश्रम किया है उसके कारण आप शतशः धन्यवादके पात्र हैं। जैन गजटके अंकों में ही इस "लीला" के बने रहनसे सर्व साधारणका यथा उचित विशेष उपकार नहीं होसकता ऐसा विचारकर हमारी सभाने अपने हदय से केवल सत्यासत्य निर्णयार्थ सर्वको यथार्थ लाभ पहुंचाने के सद् उद्देश्यसे ही इसको पुस्तकाकार मुद्रित कर प्रकाशित किया है। अन्तम हमको पूर्ण आशा तथा रद विश्वास है कि इसको निष्पक्ष एक वार पठन करने से और नहीं तो हमारे प्रिय आर्यसमाजी भाइयों को ( जिनका कि घेदोको पढना और पढाना परम धर्म भी है) अवश्य ही घेदोंको-जिनका कि पढना और समझना अव प्रत्येक पर्याप्त हिन्दी जानने वाले साधारण बुद्धिमान् पुरुष को भी वैदिकयन्त्रालय अजमेर से खल्प मूल्यमें ही प्राप्तव्य स्वामि भाष्य वेदोसे सुलभ साध्य होगया है-कमसे कम एकवार पाठ करनेका उत्साह और उसपर निष्पक्ष विचार करनेसे उनको वेदोका यथार्थ ज्ञान प्रगट होजायगा और ऐसा होनेपर उनको निज कल्याणार्थ सत्य धर्म की अवश्य ही खोज होगी। हमारी यह आन्तरिक माल कामना है कि मनुष्य मात्र वस्तु स्वभाष सच्चा धर्म लाभकर अपने अनन्त, आविनाशी, स्वाधीन, निराकुल, और आत्मस्वरूप आनन्दको प्राप्त होवे ॥ इति शुभम् ॥ जीवमानका हितैषीजनवरी १९११ ईस्वी । चन्द्रसेन जैन वैद्य, मन्त्री इटावा श्री जैनतत्व प्रकाशिनी सभा -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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