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________________ १७२ मार्यमतलीला ॥ हैं वे घटदर्शनके विरुद्ध नहीं हैं परन्तु | यह है कि मनुष्य मुक्ति माधन से नि. यदि आप पदर्शन को पढ़ें तो श्राप | रुत्साही होणावें । पयोंकिको मालूम हो जावेगा कि स्वामी जी चलना है रहना नहीं के सर्वसिद्धान्त कपोल कल्पित , पूर्वा- चलना घिसंच बीम। चापोंके विरुद्ध और मनुष्यों को धर्मसे ऐसे सहज सुहाग पर चष्ट करने वाले हैं। कौन गदावे सीस ॥" प्यारे मार्य भाइयो ! योगदर्शन को (३) दर्शनकारों के मतके अनमार | आप जिम सादरकी निगाह से देखते प्रकृतिके संग में जीवमें सत, रज और हैं जितना आप इम ग्रन्थको मुक्तिका तम तीन गुण पैदा होते हैं और इन मार्ग और धर्म की बुनियाद समझते ही गुग के कारण जीवकी अनेक क्रिया हैं उसको आप ही जानते हैं परन्तु में और चटायें होती है और यही दुःख है यदि आप योगदर्शन और सत्यार्थप्रदर्शनकारोंके अनुसार जीव स्वभावमे काशको मिलावे तो आप को मालम | निगा है और हमही हेतु अपरिक्षामी होगा कि स्वामीजी ने मुक्ति और उस | है-मंमार में जीवका जो कुछ परिखाम के उपायोंकी जड़ ही उखड़ दी है-- | होता है वह प्रकृति के उपरोक्त तीन यात् धर्मका नाश हो करदिया है निग्न गुणों के ही कार या दोता है-प्रकृतिका लिखित विषय अधिक विचारणीय हैं- मंग छोडकर अथात् मोक्ष पाकर जीव (१) दर्शन कार काँके क्षय से म- निर्गुण और परिणामी रह जाता है क्ति मानते हैं परन्तु स्वामी जी मुक्ति और निर्मल होकर मर्व प्रकार के संकको भी कर्मों ही का फन बनाते हैं। प विकल्प बंद कर ज्ञान स्वरुप अप-1 मानो स्वामीजीकी समझ में जीव कभी न आत्मा है। में स्थित रहता है और कर्म बंध नसे छूट ही नहीं मक्ता है। जानानन्दम मम रहता है परन्तु स्वामी (२) मुक्ति किसी नवीन पदार्थ की दयानन्द का हमके विपरीत यह मिखा. प्राप्ति वा किमी नवीन शक्तिको उत्प ते हैं कि मुक्ति पाकर भी जीव अप पनी इच्छानुसार संकल्पी गैर बनात्तिका नाम नहीं है वाणा प्रकृति का नेता है और सर्व स्थानों का मानन्द संग छोडकर जीवका स्वच्छ और नि- भोगता हा फिरता रहता है और मल होजाना ही मुक्ति है इमहा इतन्य मक्तजीवों में मल मुलाकात करता मुक्ति के पश्चात् जावक फिर बधनम फ-रहना है। फन उनकी म शिक्षाका भने का कोई कारण ही नहीं है परन्तु यह कि समारी जीवों और मुक्त जीवों स्वामीजी मिखाते हैं कि मुक्तिसे नोट में कोई अंतर न रहै और भक्ति मा. कर जीवको फिर बंधनमें पड़ना प्राव-धन व्यर्थ ममझा जाफर मनष्य संसार । श्यक है- फल स्वामीजीके सिद्धान्त का! को ही उन्नति में लग रहैं।
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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