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________________ १६६ प्रार्थमसलीला | आर्यमतलीला | सांख्यदर्शन और ईश्वर (२६) प्रिय पाठको ! स्वामी दयानन्दतीने यह प्रकट किया है कि वह पट्ट्र्शनके मानने वाले हैं और उनके अनुयायी हमारे शार्य भाई भी ऐसा ही मानते हैं- षट्दर्शनों में मांख्यदर्शन भी है जो बड़े ओर अनेक युक्तियों के साथ कर्ता ईश्वर का खण्डन करना है और जीव और प्रकृति यह दही पदार्थ मानता है - इस कारण आर्य भाइयोंकी भी ऐसा ही मानना उचित है- अर्थ- प्रतिनियत कारण होनेसे बिना राग उसकी सिद्धि नहीं- अर्थात् बिना राग के प्रवृत्ति नहीं हो सकती है इम कारण ईश्वरका कुछ भी कार्य मानाजावे तो उसमें राग अवश्य मानना पड़ेगा-सां० ॥ २५ ॥ सू० 9 ॥ तद्योगोऽपि न नित्यमुक्तः (6 " ॥ अर्थ-यदि उनमें राग भी मान लिया जात्र तो क्या हर्ज है इनका उत्तर देते हैं कि फिर वह नित्यमुक्त कैसे माना जावेगा ? ईश्व के मानने वाले उसको नित्यमुक्त मानते हैं उसमें दोष आवेगाप्रधानशक्तियोगाच्चेत् मङ्गापत्तिः " ॥ मां० ॥ २५ ॥ सू "" अर्थ-जिम प्रकार कि जीव के माथ प्रकृतिका लग होकर और राग आदि पैदा होकर गंमारके अनेक कार्य होते हैं हम ही प्रकार यदि ईश्वरका मटि हत्तपन प्रधान अर्थात् प्रकृति के मंग से मानाजावे तो उसमें संगी होने का दीप आता है । "मामात्राच्चेत् सर्वैश्वर्यम् ॥ सां दयारे प्रार्य भाइयो ! मांख्यशास्त्रको देखिये और स्वामी दयानन्द के भ्रम जानमे निकल कर सत्य का दस की जिये जिससे कल्याण ही - देखिये हम भी कमारांश मांख्य के हेतुओं का आपको दिखाते हैंनेश्वराधिष्ठिते निष्पत्तिः क मेणा तरिषदुः " ॥ मां ॥ ०५ ॥ ०२ ॥ ०५ ॥ २९ अर्थ-ईश्वर के अधिष्ठित होने में फली अर्थ-यदि यह माना जाये कि प्रकृति मिद्धि नहीं है कर्मने फन्नकी सिद्धिही का संग मसामात्र है - जिस प्रकार मणि नेसे अर्थात् कर्मा ही मे स्वामात्रिक के पास डांक रखने से मणिमें डांक का फल मिलता है यदि ईश्वरको फल देने रंग दोखने लगता है हम ही प्रकार वाला मानाजावे और कर्मों ही से स्वा- प्रकृतिको मत्ताने ही ईश्वर काम करना भाविक प्राप्ति न मानी बातो ठीक है प्रकृति उम्र में भिन्न नहीं जाती, तो नहीं होगा और फलकी प्राप्ति बाधा | जितने जीव हैं यह वही ईश्वर हो श्रावंगी - जायेंगे क्योंकि जितने संमारी जीव हैं 66 नं रागादृते तमिः प्रतिनि-उन की व्यवस्था मांख्यने इसी प्रकार यत कारणत्वात् ॥ मां० ॥ ०५ ॥ सू० ६ मानी है ।
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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