SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 150
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ - - मार्यमतलीसा ॥ जानने हारे परमात्मन् ! बाप हमको श्रे। ममीपस्थ नेके यहाही मर्प हो सकते ण्ठमार्गसे संपूर्ण प्रशानों को प्राप्त करा- हैं कि ईश्वर के गहोंके ध्यानमें इतना इये और जो हममें कटिल पापाचरण- मग्न होताना कि मानो अपने भद्रूपमार्ग है उससे पृथक् कीजिये । इ-गगों सहित ईश्वर समीप ही विरासीलिये हमलोग नम्रतापूर्वक भापको | शुतसी स्तुति करते हैं कि भाप हम | प्यारे मार्य भाइयो ! यह अति - को पवित्र करें।" सम गण क्या हैं जिनकी प्राप्तिके वास्ते स्वामी दयानन्द की सत्यार्थप्रकाश के और वह निकृष्ट प्रवगण क्या हैं जिन पष्ठ १८७ पर उपासनाका अर्थ इम प्र मप्र के दूर करनेके धास्ते ईश्वरको स्तुति कार लिखते हैं प्रार्थना और उपासनाको प्रावश्यकता ___“ उपासना शब्द का अर्थ ममीपस्य है ? इसके उत्तर में प्रापको विचारमा होना है अष्टांगयोगसे परमात्मा के समीपस्य होने और उसको सर्वव्यापी चाहिये कि जीव स्वभावसे तो रागद्वेष सर्वान्त र्शमी रूपसे प्रत्यक्ष करने के लिये रहित स्वच्छ और निर्मण है इस ही जो २ काम करना होता है वह २ सय कारपा स्वामीजीने कहा है कि सपामकरना चाहिये, नासे जीव के गुल कर्म स्वभाव ईश्वर स्वामीजी सत्याप्रकाशके पष्ट १८८ के मदृश पवित्र हो जाते हैं परन्त पर इस प्रकार लिखते हैं कर्मों के वश होकर राग द्वेष प्रा. "परमेश्वर के समीप प्राप्त होनेसे समदिक उपाधियां इम नीबके माप लगी दोष दुःख रुटभर परमेश्वर के गठण कर्म हुई हैं इस ही कारमा संसारी जीव स्वभावके मद्रग जीवात्माके गम कर्म मोहान्धकारमें फंमकर मान माया लो. स्वभाव पवित्र दोजाते हैं । इमलिये भ क्रोध प्रादिक कषायों के वशीभत . परमेश्वरको स्तुति प्रार्थना और उपा. मा पांच इन्द्रियों के विषय भोगोंका समा अवश्य करनी चाहिय । - प्यारे पाठको ! स्वामी दयानन्दनी गुलाम बना हुआ अनेक दुःख उठाता के कथनानमार ईश्वर सर्वध्यापक है। और भटकता फिरता रहता है और अर्थात् सब जगह मौजूद है यहां तक मंमार में कभी इसको चैन नहीं मिलकिसय जीवोंके अन्दर व्याप्त है चाहे ती है जा यह मब उपाधियां जमकी दर वह पापी है बाधर्मात्मा। इस कारण होजाती हैं तय मुक्ति पाकर परमानउपासना करने में ईश्वर के समीपस्थ |न्द भोगता है और शान्तिके साथ स. होनेके पद पर्थ तो होही नहीं मकतेचा सुख उठाता है इस हेतु इन 8. किरके पाप जावैठना क्योंकि पाधियोंका दूर करना और स्वच्छ और समीप तो वह भदाही रहता है वरण निर्मल होजाना ही इसका परम कर्त. - - - -
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy