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________________ प्रायमतशीला ॥ १४३ भादि चेष्टा कर अपने अपराध कुहा- | ईश्वर स्तुति और प्रार्थना प्रादिक कलेंगे और जो अपराध नहीं करते वेरनेसे वा न करमेसे राजी वा माराज भी अपराध करनेसे न हरकर पाप क- नहीं होता है। रने में प्रवृत्त होजायंगे । इमलिये मब इस ही प्रकार स्वामी दयानन्द जी कमोका फल ययावत् देना ही ईश्वरका | सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ १८६ पर लिखते हैं काम है क्षमा करना नहीं। __ " ऐसी प्रार्थना कभी न करनी चाप्यारे आर्य भाइयो ! स्वामीजीके उ-दिये और न परमेश्वर उसको स्वीकार पर्युक्त लेखसे स्पष्ट विदित है कि जो | करता है कि जैसे हे परमेश्वर ! श्राप कोई ईश्वरकी भक्ति करता है या जो मेरे शत्रों का नाश, मुझको सबसे बड़ा कोई भक्ति स्तुति नहीं करता है वा| मेरीही प्रतिष्ठा और मेरे प्राधीन सब जो कोई ईश्वरको मानता है या नहीं होजाय इत्यादि क्योंकि जब दोनों शत्रु मानता है, ईश्वर इन सब जीवोंको एक दूसरेके नाशके लिये प्रार्थना करें समान दृष्टि से देखता है । भक्ति स्तुति तो क्या परमेश्वर दोनोंका नाश कर करने वाले के ऊपर रियायत नहीं क- दे? मो कोई कहै कि जिमका प्रेम प्ररता अर्थात् उनके अपराधों को छोड़ धिक हो उसकी प्रार्थना सफल होजावे नहीं देता और उनके पापोंको मुश्राफ तब हम कह सकते हैं कि जिसका प्रेम नहीं करता और उनके पुरय कर्मोंसे न्यम हो उसके शत्रुका भी न्यन नाश अधिक कुछ लाभ नहीं पहुंचाता वरण होना चाहिये-ऐपी मूर्खता की प्रार्थजितने जिसके पुराय पाप हैं उनदी के ना करते २ कोई ऐसी भी प्रार्थना कअनुसार फल देता है और भक्ति स्तु-रेगा हे परमेश्वर ! श्राप हमको रोटी तिम करने वालों पर क्रोध नहीं क- बनाकर खिलाइये, मकान में झाष्ट्र ल. रता और सनपर नाराज होकर गाइये बस धो दीजिये और खेती | ऐसा नहीं करता है कि उनके पुण्य | बाड़ी भी कीजिये-" फलको म देवे वा न्यून पापका अधिक स्वामी दयानन्दजीके उपरोक्त लेख | दरख देदेवे बरण उनके पाप पुरुष क- से तो खुल्लम खुल्ला यह ज्ञात होगया मौके अनुमार ही सनको फल देता है। कि धन, धान्य, पुत्र, पौत्र, खो, कटु इस ही प्रकार स्वामी दयानन्द जी | म्ब, महल, मकान, जमीन, जायदाद, सत्यार्थप्रकाशके पृष्ठ १८२ पर प्रश्न क-प्रतिष्ठा, और शरीर कशल आदिक रते हैं "क्या स्तुतिमादि करनेसे ईश्वर संसारी कार्योके वास्ते ईश्वरसे प्रार्थना अपना नियम छोड़ स्तुति प्रार्थना क-करना और इसके अर्थ उसकी भक्ति रने वालेका पाप सादेना ?" इसके स्तुति करना बिल्कुल व्यर्थ है। ईश्वर उत्तर में स्वामीजी लिखते हैं। नहीं"खशामदी नहीं है जो किसीको भक्ति इससे भी स्पष्ट विदित होता है कि स्तुति बा प्रार्थनासे खुश होकर उसका
SR No.010666
Book TitleAryamatlila
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Tattva Prakashini Sabha
Publication Year
Total Pages197
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size10 MB
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